दान…

एक बालिका बरामदे में खड़ी थी। सामने से एक दरिद्र बालिका ठंड से ठिठुरती हुई गुजरी। बालिका भाग कर अंदर गई, मां से बोली- तुम कह रही थीं ना, मेरा वस्त्र दान देना है। उस लडक़ी को दे दो ना, वह ठंड से ठिठुर रही है। मां ने आंखें तरेर कर कहा- वह तो पीला वस्त्र गुरुवार को पंडित को दान देना है। बालिका के मस्तिष्क में झंझावात उठ गया। वह समझ नहीं पाई कि वस्त्र की जरूरत इसे है या पंडितजी को।
छोटे से बड़ा दान समय, ऋतु, अवस्था या मृत्योपरांत नैमित्तिक दान देने का नियम हमारी संस्कृति में है। पर किसी व्यक्ति की आवश्यकता के हिसाब से उसे संतुष्ट करना दान है, या संकल्प लेकर जो हमें देना हो, वह दान है।
हिसाब-किताब में चतुर मनुष्य दान देने से पहले ही पुण्य का हिसाब लगा लेता है। लक्ष्य तो इतना बड़ा है कि गाय की पूंछ पकडक़र वैतरणी पार करनी है, पर कम दाम में उपलब्ध तो बूढ़ी मरियल गाय होती है। ब्राह्मण को वस्त्र दान करते समय बगल का दरिद्र नहीं दिखता। यदि दिख गया और दे दिया तो कर्ता भाव का अहंकार काफी दिन बना रहता है।
संकल्प करके, विचार करके, आकलन करके या वापस पाने की मनोवृत्ति से किया दान, दान नहीं आत्मसंतुष्टि है। दान देकर दोहराना भी दान नहीं, क्योंकि वह मन से नहीं छूटा है। जिसमें कर्ता, दाता का भाव न हो, वापस पाने की भावना न हो, वही सच्चा दान है।
नेत्र दान किसी का जीवन रोशन करता है, रक्तदान जीवन देता है, विभिन्न अंगों का दान किसी को जीवन दे सकता है, भूखे की क्षुधा शांत करके तृप्ति मिलती है, विद्यादान किसी की पीढिय़ां तार देता है।
मान्यताएं दृष्टि बदलकर दान का महत्व बच्चों में बचपन में डाल दिया जाए तो अंधविश्वास हटकर उनका विवेक खुल जाता है। धर्म एवं संस्कृति में जो मूल्य मान्यताएं हैं, उन्हें तोड़मोडक़र बनाने वालों से घिरा हुआ बालक भी खुद अपनी
मान्यताएं बनाने में सक्षम हो परोपकारी हो सकता है। बालक बुद्धि शब्दों में नहीं आचरण से मूल्य समझती है। अत: उन्हें सिखाने से पहले हमें खुद अपना विवेक खोलना होगा।
विनीता जाजू…
