तिल तिल घुटाए या संभावना बन जाए

संदीप खमेसरा
अकेलापन डराता है। विशेषकर सेवानिवृति के बाद। व्यक्ति वृद्धावस्था में भी काम ही की तलाश में रहता है। किसी न किसी उद्यम में स्वयं को संलग्न रखना चाहता है। दावा यह करता है कि संलग्नता से क्रियाशीलता बनी रहती है, लेकिन हकीकत यह है कि खालीपन से वह बेहद घबराता है। अधिकांश लोगों के पास, सेवानिवृति के बाद, “जीवन” से संबंधित कोई योजना नहीं होती। खाली समय का उपयोग, जीवन के अनछुए पहलुओं को अनावृत करने की कोई दृष्टि भी नहीं होती।
अकेले होने का अर्थ यह भी नहीं है कि बुढ़ापे में केवल पति पत्नी ही रह गए बाकी सब सुदूर नौकरियों में चले गए। दो हों या दस, अकेलापन, एक मानसिक त्रासदी है, जो अक्सर ऐसे माहौल से निर्मित हो जाती है जिसके लिए मन तैयार नहीं होता। और अब यह इतने व्यापक रूप में प्रदर्शित हो रहा है, जिसकी दस वर्ष पूर्व किसी ने कल्पना भी न की थी।
मसलन,
1. एकल परिवार रहा। एक या दो बच्चे हुए। शादी के बाद बेटी उसके घर। बेटा नौकरी में अन्य शहर। बचे केवल पति पत्नी। अकेलापन!
2. बड़ा परिवार। बच्चों की शादी हो गई। अहंकारों का टकराव। रोज क्लेश। बच्चों को माता पिता की परवाह ही नहीं। कहने को साथ, लेकिन कोई संवाद नहीं। अकेलापन!
3. पोते पोतियों का भरा पूरा परिवार। जितना बड़ा परिवार, उतनी बड़ी पूछ और सम्मान की अपेक्षा। तीसरी पीढ़ी के पास निकट बैठने का समय नहीं। अलग तरह का अकेलापन!
4. छोटे पोते पोती पर जान न्यौछावर। लेकिन उन्हें कैसे हैंडल करना है, क्या क्या उनके साथ नहीं करना है, उन्हें क्या क्या नहीं खिलाना है, उनके साथ किस तरह की भाषा का उपयोग नहीं करना है आदि तमाम दिशा निर्देशों की कुंठा। अकेलापन!
5. वृद्धावस्था में भी चाहतों, विषयों और विकल्पों में उलझे रहने की मनोवृत्ति से आगामी पीढ़ी का चिड़चिड़ाना। बात बेबात बोलने पर भी लगाम लगा देना। पूरी तरह नजरअंदाज करना। अवसाद भरा अकेलापन!
6. अपने कामों के लिए निर्भर हो जाना। समय पर नहीं हो पाने से भीतर ही भीतर घुटना। नितांत अकेलापन!
7. शिकायतों का अंबार। दशकों पहले जो गलत हुआ उसे भी दोहराते रहने से स्वयं पति पत्नी के मतभेद। बच्चों से पिता कैसे व्यवहार करे इसका दबाव बच्चों की माता बनाए, और माता किस तरह उन्हें हैंडल करे यह बच्चों का पिता समझाए। दोनों ही एक दूसरे से कनविंस न हों। बच्चों और बहुओं को मैनेज करने के चक्कर में वे दोनों ही आपस में भिड़ते रहें। विचित्र अकेलापन।
8. हमने हमारे जमाने में ऐसा किया, यूं जीवन जिया। आज की पीढ़ी हमारे मुकाबले क्या ही करेगी। यह बड़ा भारी रोग है, जो कालांतर में अकेलेपन की भूमिका तैयार करता है।
ऐसी अनेकानेक परिस्थितियां हैं, जो वृद्धावस्था में बड़ी बेचैनी का कारण बनती हैं। प्रश्न सही और गलत का नहीं है। प्रश्न परिस्थिति का और स्वयं की मानसिक शांति के लिए उससे निपटने का है। जैसे
1. सत्तर के बाद के जीवन को थोड़ा बुद्धिमानी (बोधपूर्ण) और होशपूर्ण जीने की तैयारी साठ के बाद ही शुरू कर देनी चाहिए।
2. अपने अहंकार, क्रोध, लालच और अपेक्षाओं की मनोवृत्ति को गलाने की प्रक्रिया की शुरुआत करने के साथ, सहज स्वीकारोक्ति का भाव विकसित करने की मानसिकता के विकास पर कार्य करना चाहिए।
3. साथ रहने वाले की रुचि जितना बोलना और हस्तक्षेप ना करने की कला भी आनी चाहिए।
4. विषयों को तेजी से छोड़ने और नुकसान को भी नजरअंदाज कर देना सीखना होगा।
5. जिस तेजी से ज़माना करवट ले रहा है, उसमें हमारे विचार और हमारी मान्यताएं कहीं पीछे छूटे जा रहीं हैं। जिस भावना के साथ गम खाकर भी हमने बड़ों और बच्चों को खुशी और सुख देने की नीयत रखी, वैसी अपेक्षा, आने वाली पीढ़ी से रखना ही दुःख का सबसे बड़ा कारण बनेगा।
6. भावना (Emotion) से अधिक, अब वे व्यावहारिकता (Practicality) पर अधिक केंद्रित होते हैं। और, व्यावहारिकता कई बार उपयोगिता और परिस्थितियों पर आधारित हो जाती है। वहां फिर श्रद्धा का कोई विशेष मोल नहीं रहता।
7. स्वयं का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा धन है यह जितना जल्दी समझ आ जाए बेहतर।
अकेलेपन को बहुत बड़ी आध्यात्मिक संभावना में रूपांतरित किया जा सकता है। बस, यह समझना होगा कि संसार सीमित है। अध्यात्म (हम स्वयं जो हैं — आत्मा) असीम है। हमने कितना ही संसार देखा हो, कितने ही लोगों का मनोविज्ञान समझा हो, कितने ही निदान सुझाए हों, लेकिन हम स्वयं की मानसिकता की बहुत बड़ी सीमा में रहते हैं। मजे की बात यह है कि इस सीमा से हमारा परिचय नहीं है, क्योंकि हमारी दृष्टि संसार पर है, स्वयं पर नहीं! वानप्रस्थ और संन्यास की व्यवस्था, इसी बड़ी संभावना से रूबरू होने की भूमिका का नाम है।
और, जब इन प्रकल्पों के भीतर उतरेंगे तो यकीनन इनमें जो रस आयेगा, यह संसार में नहीं था, इस निष्कर्ष पर भी पहुंच जाएंगे। चिंताएं छोड़िए कि समय नहीं कटता, कोई बोलने समझने वाला नहीं, कोई दिल बहलाने वाला नहीं….क्या करें कोई काम नहीं…! यह मालाएं जपना बंद कीजिए और किसी अन्य माला पर हाथ आजमाइए, जिससे जीवन धन्य हो पाए
