अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की व्यापार नीति, खासकर टैरिफ को लेकर उनका आक्रामक रुख, वैश्विक व्यापार पर एक बार फिर दबाव बना रहा है. 14 देशों पर थोपे गए नए टैरिफ और ब्रिक्स देशों के लिए अतिरिक्त शुल्क की चेतावनी के बीच भारत के लिए यह समय एक निर्णायक मोड़ है. विशेषकर तब, जब भारत को 26 फीसदी टैरिफ से पूर्ण छूट की उम्मीद है और अमेरिका से चल रही वार्ताएं एक अंतरिम समझौते की ओर बढ़ रही हैं.
ट्रंप की नीति स्पष्ट है—टैरिफ के ज़रिए सौदेबाजी का दबाव और “अमेरिका फर्स्ट” की नीति को आक्रामक ढंग से आगे बढ़ाना. लेकिन भारत ने भी एक परिपक्व और रणनीतिक रुख अपनाया है. प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान शुरू हुई व्यापार वार्ता को आगे बढ़ाने का प्रयास हो रहा है, पर भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि वह “किसी भी कीमत पर” समझौता नहीं करेगा.
वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल का वक्तव्य इस संदर्भ में बेहद महत्वपूर्ण है: “देशहित पहले.” यह नारा न केवल राजनीतिक तौर पर सटीक है, बल्कि नीति निर्माण के स्तर पर भी इसका ठोस असर दिख रहा है. भारत कृषि और डेयरी क्षेत्रों को लेकर अडिग है, और यह बिल्कुल उचित है. करोड़ों किसानों की आजीविका इन क्षेत्रों से जुड़ी है. अमेरिका की मांगों के सामने यदि भारत इन संवेदनशील क्षेत्रों को खोलता है, तो यह एक आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक त्रासदी को न्योता देने जैसा होगा.
भारत ने अब तक किसी देश के साथ कृषि क्षेत्र नहीं खोला है—यह तथ्य अपने आप में नीति की गंभीरता को दर्शाता है. ऐसे समय में जबकि ट्रंप सरकार ने यूनाइटेड किंगडम और चीन जैसे देशों से सौदे किए हैं, भारत के सामने यह विकल्प है कि वह अंतरराष्ट्रीय दबाव में आकर कोई असमय और असंतुलित समझौता न करे.
इस समय अमेरिका भारत से यह अपेक्षा कर रहा है कि वह इस्पात, एल्युमिनियम और ऑटोमोबाइल क्षेत्र में टैरिफ राहत दे, जबकि बदले में कृषि और डेयरी जैसे संरक्षित क्षेत्रों में अमेरिकी उत्पादों को रास्ता दे. यह व्यापार संतुलन नहीं, बल्कि एकतरफा लाभ का मॉडल है—जिसे भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए स्वीकार करना संभव नहीं है.
भारत को चाहिए कि वह टैरिफ के इस संकट को सिर्फ व्यापारिक विवाद न माने, बल्कि इसे नीतिगत स्वतंत्रता और आर्थिक आत्मनिर्भरता के प्रश्न के रूप में देखे. अमेरिका की ‘समयसीमा की तलवार’ भारत को डराने के लिए है, लेकिन इससे झुकना नहीं, संवाद से संतुलन बनाना ही हमारे लिए श्रेयस्कर होगा.
भारत के पास अब दो स्पष्ट विकल्प हैं—या तो वह ‘90 दिन की समयसीमा’ और ‘टैरिफ की धमकी’ से घबराकर समझौते की दिशा में तेजी दिखाए, या वह रणनीतिक धैर्य रखते हुए अमेरिका के साथ संतुलित और सम्मानजनक समझौते की प्रतीक्षा करे.
ट्रंप प्रशासन बार-बार यह संकेत दे रहा है कि वह किसी भी समय अपनी नीति में बदलाव कर सकता है, बशर्ते दूसरा पक्ष “फोन करके कुछ अलग करने की बात करे”. यह अनिश्चितता, यह द्वंद्वात्मकता ही अमेरिका की रणनीति का हिस्सा है, जिससे भारत को सावधान रहना होगा.यह ध्यान रखना होगा
कि भारत का व्यापारिक भविष्य उसकी आत्मनिर्भरता, रणनीतिक धैर्य और घरेलू हितों की रक्षा पर टिका है,न कि किसी तात्कालिक छूट या धमकी के सामने समझौते पर. व्यापार की इस वैश्विक शतरंज में भारत को हर चाल सोच-समझकर चलनी होगी, ताकि उसका किसान, उसका उद्योग और उसकी अर्थव्यवस्था सुरक्षित भी रहे और आगे भी बढ़े.
