इटारसी। जहां शहरी क्षेत्रों में नवरात्रि के दौरान माता की प्रतिमाएं और घट स्थापित किए जाते हैं, वहीं इटारसी के ग्रामीण अंचलों में प्राकृतिक परंपरा और आदिवासी संस्कृति के अनुरूप ‘ज्वारे’ (जवा) बोने की अनूठी परंपरा का निर्वहन किया गया। यह परंपरा प्रकृति के प्रति स्थानीय समाज के गहरे सम्मान को दर्शाती है। खोरीपुरा निवासी रामविलास राठौर ने इस विषय में जानकारी देते हुए बताया कि उनका समाज स्वयं को प्रकृति का पुजारी मानता है। यह पर्व पूरी तरह से पर्यावरण-अनुकूल तरीके से मनाया जाता है, जो उनकी आस्था और प्रकृति के साथ उनके अटूट बंधन का प्रतीक है।
प्रकृति के तत्वों से ज्वारे की स्थापना- यह परंपरा पूरी तरह से प्राकृतिक सामग्रियों पर आधारित है। ज्वारे की स्थापना के लिए किसी भी कृत्रिम वस्तु का प्रयोग नहीं किया जाता। पूजा-पाठ और अनुष्ठान आदिवासी समाज के मुख्य पुजारी ‘भूमका’ के सान्निध्य में किए जाते हैं।
सामग्री – ज्वारे बोने के लिए महुआ, सजाड़ और खक्कर (पलाश) के पत्तों का प्रयोग किया जाता है।
स्थापना – ज्वारे बोने के लिए बांस के पिंच (टोकरी जैसी संरचना) और मिट्टी से बनी चाड़ी (छोटे पात्र) का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें जौ या गेहूँ के दाने बोए जाते हैं। रामविलास राठौर ने बताया कि यह पूरा समय रात-दिन सेवा और जास-कीर्तन (पारंपरिक भक्ति गीत) करते हुए व्यतीत होता है। नवरात्रि पर्व की समाप्ति के बाद, बोए गए ज्वारों का आज हंस गंगा नदी में विसर्जन किया गया। विसर्जन से पूर्व इन ज्वारों को तिलक और सिंदूर लगाकर इनकी पूजा की गई।
