मैं नारी हूँ…
स्त्री, नारी, औरत—हर नाम से पुकारा गया,
पर सदियों से मेरे अस्तित्व पर प्रश्न उठाया गया।
कभी देवी बना पूजा गया, तो कभी परछाईं समझ भुला दिया गया,
हक़ माँगा तो चुप कराया गया, सपने देखे तो रास्ता रोका गया।
हक़ जताया, तो आँखें चुराने लगे,
सपने बुने, तो क़दमों में ज़ंजीरें लगाने लगे।
दीवारें उठीं, दरवाज़े बंद हुए, पर मैं रुकी नहीं,
हर बेड़ी तोड़ी, हर जंजीर से लड़ी।
और वक़्त के थपेड़ों ने मुझे मज़बूत बना दिया,
हर अन्याय, हर बंधन ने नया हौसला जगा दिया।
जो कभी चूल्हे की आँच में सिमट जाती थी,
आज सूरज की लौ को भी चुनौती दे आती हैं।
सिर्फ़ रिश्तों में नहीं, किताबों में भी जगह बनाई,
कभी इतिहास रची, तो कभी भविष्य गढ़ आई।
जो कभी सीता बनी, अग्निपरीक्षा से गुज़री,
तो कभी द्रौपदी बन अपनों के बीच ही लज्जित हुई।
जिसने लक्ष्मीबाई बन तलवार उठाई,
तो कल्पना बन अंतरिक्ष तक उड़ाई।
और आज द्रौपदी मुर्मू बन सत्ता के शिखर तक पहुँच आई,
हर रूप में नारी ने अपने सपनों को नया आसमां दिखलाया।”
अब किसी की परछाईं नहीं, मैं अपनी पहचान हूँ,
जो चाहूँ वो बनूँ, बस यही मेरा विश्वास हूँ।
ना मोम हूँ, ना पत्थर, ना किसी की दासी,
मैं शक्ति, मैं प्रकाश, मैं अपने आप में पूरी एक सृष्टि।
हाँ, मैं वही स्त्री, वही नारी, वही औरत हूँ…
जो हर बार गिरी, फिर उठी, और इतिहास गढ़ गई!
– सुचिता सकुनिया