उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम : महत्वपूर्ण फैसला

भारत की सर्वोच्च अदालत ने माना है कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 2019 के तहत वकीलों को सेवा में कमी के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, अब इसी आधार पर डाक्टरों के बारे भी निर्णय आने की सम्भावना है.सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी व न्यायमूर्ति पंकज मिथल की खंडपीठ ने कहा कि कानूनी पेशे में कार्य की प्रकृति विशिष्ट है,इस कारण इसकी तुलना अन्य व्यवसायों से नहीं की जा सकती. इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी कि उपभोक्ता अदालतों में खराब सेवा के लिए वकीलों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता.हालांकि सर्वोच्च न्यायालय खंडपीठ ने कहा कि वकीलों को मुवक्किल की स्वायत्तता का सम्मान करना चाहिए, मुवक्किल के स्पष्ट निर्देश के बिना रियायतें देने और अधिकार का उल्लंघन करने का हक वकीलों को नहीं होना चाहिए.

मुवक्किल और वकील के पास काफी हद तक प्रत्यक्ष नियंत्रण होता है.सुप्रीम कोर्ट ने अपनी राय व्यक्त करते हुए माना कि वकील और मुवक्किल के बीच का अनुबंध व्यक्तिगत सेवा है और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत सेवा की परिभाषा से उक्त अनुबंध बाहर है, जिस कारण वकील उपभोक्ता कानून के दायरे में नहीं आ सकते. सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था बार काउंसिल ऑफ इंडिया, दिल्ली उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन और बार ऑफ इंडियन लॉयर्स जैसी बार संस्थाओं तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा दायर याचिका पर संयुक्त निर्णय पारित करते हुए दी.उक्त संस्थाओं ने राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के 2007 के उस फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें कहा गया था कि अधिवक्ता और उनकी सेवाएं उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के दायरे में आती हैं.राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग ने अपने एक फैसले में कहा था कि वकील की अपने मुवक्किल को दी गई सेवा पैसों के बदले में होती है. इस कारण वह एक कॉन्ट्रैक्ट की तरह है. ऐसे में सेवा में कमी के लिए मुवक्किल अपने वकील के खिलाफ उपभोक्ता वाद दाखिल कर सकता है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया है.

सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने माना कि वकालत एक प्रोफेशन है. इसे व्यापार की तरह नहीं देखा जा सकता,किसी प्रोफेशन में कोई व्यक्ति उच्च दर्जे का प्रशिक्षण लेकर आता है, इस कारण उसके काम को व्यापार नहीं कहा जा सकता.सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि एक वकील अपने मुवक्किल के निर्देश पर काम करता है. वह अपनी तरफ से कोर्ट में कोई बयान नहीं देता या मुकदमे के निपटारे को लेकर कोई प्रस्ताव नहीं देता है. इस कारण उसकी सेवा को उपभोक्ता संरक्षण कानून में दी गई उपभोक्ता सेवा की परिभाषा के तहत नहीं माना जा सकता.

साथ ही ने सर्वोच्च न्यायालय स्पष्ट किया ,’ हम यह नहीं कहना चाहते कि वकीलों पर लापरवाही के लिए सामान्य कानून के तहत मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, लेकिन वे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत नहीं आते हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अनुसार किसी प्रोफेशनल को व्यवसायियों, व्यापारियों या उत्पादों या वस्तुओं के सेवा प्रदाताओं के बराबर नहीं माना जा सकता, इसलिए सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि अधिनियम का उद्देश्य केवल अनुचित व्यापार प्रथाओं और अनैतिक व्यावसायिक प्रथाओं से उपभोक्ता को सुरक्षा प्रदान करना है,जिसमे किसी प्रोफेशनल को शामिल नहीं किया जा सकता.सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने इस सवाल पर कि क्या अधिवक्ता सेवा के अनुबंध के तहत एक सेवा है, कहा, हमने अधिवक्ता अधिनियम, बार काउंसिल नियमों और उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्रावधानों पर विचार किया है. उपरोक्त दृष्टिकोण से अधिवक्ता और उसके मुवक्किल के बीच संबंध अद्वितीय विशेषताओं को इंगित करेगा.अधिवक्ताओं को अपने मुवक्किलों का एजेंट माना जाता है और उन्हें अपने मुवक्किलों के प्रति प्रत्यायी कर्तव्य निभाने होते हैं. अधिवक्ताओं को कम से कम प्रतिनिधित्व के उद्देश्यों के बारे में निर्णय लेने के लिए मुवक्किलों की स्वायत्तता का सम्मान करना चाहिए अधिवक्ता मुवक्किल के स्पष्ट निर्देश के बिना अदालत को रियायतें देने या कोई वचन देने के हकदार नहीं हैं.उनका गंभीर कर्तव्य है कि वे मुवक्किल द्वारा दिए गए अधिकार का उल्लंघन न करें.सर्वोच्च न्यायालय 2 जजों की बेंच ने सन 1995 में ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वी पी शांता’ केस में दिए गए फैसले पर भी दोबारा विचार की जरूरत भी बताई है.उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मेडिकल व्यवसाय को उपभोक्ता संरक्षण के तहत सर्विस करार दिया था,जो आज तक बरकरार है. यदि वकीलों के पक्ष में दिए इस फैसले का अनुसरण करते हुए सर्वोच्च न्यायालय चिकित्सकों की सेवा को लेकर भी पुन: विचार करती है तो हो सकता है,चिकित्सक भी उपभोक्ता कानून की परिधि से बाहर हो जाए.

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