संजय लीला भंसाली की फिल्म बाजीराव मस्तानी के प्रदर्शन के दस साल पूरे

मुंबई, (वार्ता) बॉलीवुड फिल्मकार संजय लीला भंसाली की सुपरहिट फिल्म बाजीराव मस्तानी के प्रदर्शन के आज दस साल पूरे हो गये हैं।

फिल्म बाजीराव मस्तानी सिर्फ एक बड़ी और खूबसूरत फिल्म नहीं है, बल्कि यह भी दिखाती है कि संजय लीला भंसाली अपनी फिल्मों में मजबूत और गहराई वाले महिला किरदारों को कितनी अहमियत देते हैं। भारतीय सिनेमा में बहुत कम ऐसे निर्देशक हैं जो अपनी कहानियों के दिल और सोच के केंद्र में महिलाओं को लगातार रखते आए हों, और बाजीराव मस्तानी इसका एक शानदार उदाहरण है।

इस कहानी में भंसाली दो महिलाओं मस्तानी और काशीबाई को दिखाते हैं, जो स्वभाव, समाज और किस्मत के मामले में एक-दूसरे से अलग हैं, लेकिन दोनों ही अंदर से बहुत मजबूत हैं। दीपिका पादुकोण की मस्तानी को कमजोर प्रेमिका नहीं, बल्कि एक बहादुर योद्धा, शायरा और अपने प्यार पर डटकर खड़ी रहने वाली महिला के रूप में दिखाया गया है। वह हिम्मत और भरोसे के साथ बाजीराव की ज़िंदगी में कदम रखती है, यह जानते हुए भी कि उसे कई मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। मस्तानी की ताकत सिर्फ तलवार में नहीं, बल्कि उसके दिल की मजबूती में है, वह उस समाज में भी प्यार चुनती है जो उसे स्वीकार नहीं करता, और वह यह सब पूरे आत्मसम्मान के साथ करती है।

भावनाओं की दूसरी तरफ प्रियंका चोपड़ा की काशीबाई हैं, जो भंसाली की सबसे मजबूत और याद रहने वाली महिला किरदारों में से एक हैं। काशीबाई की ताकत शांत है, लेकिन उतनी ही गहरी। एक पत्नी के रूप में वह समझदारी, सम्मान और धैर्य दिखाती हैं, तब भी जब उनकी जिंदगी टूट रही होती है। प्रियंका उनके दर्द को बहुत सच्चे और सहज तरीके से दिखाती हैं, बिना काशीबाई को कमजोर बनाए। काशीबाई का आत्मसम्मान बनाए रखना, मस्तानी के लिए सम्मान और अपने अस्तित्व पर डटे रहना, इस किरदार को खास बनाता है। भंसाली उनके दुख को शोर नहीं बनने देते, बल्कि उसे एक शांत मजबूती में बदल देते हैं।

बाजीराव मस्तानी को खास बनाने वाली बात यह है कि भंसाली इन दोनों महिलाओं को आपस में दुश्मन बनाकर नहीं दिखाते। वह यह साफ दिखाते हैं कि समाज की पुरानी सोच, राजनीति और पुरुषों का दबदबा दोनों को अलग-अलग तरह से चोट पहुंचाता है। मस्तानी और काशीबाई का दर्द अलग है, लेकिन उनके जज़्बात कहीं न कहीं एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। उनके बीच बिना बोले समझ बन जाना कहानी को और असरदार बना देता है। भंसाली यह भी दिखाते हैं कि महिलाओं को टकराव में भी समझ, सम्मान और गहरी भावनाओं के साथ पेश किया जा सकता है।

इस पूरी कहानी को मजबूती देने का काम रणवीर सिंह के पेशवा बाजीराव के किरदार ने किया है। रणवीर इस रोल में जोश, संवेदना और गहरी भावनाएं लेकर आते हैं। उनका बाजीराव एक ओर युद्ध के मैदान में बहादुर योद्धा है, तो दूसरी ओर प्यार और बिछड़ने के दर्द में पूरी तरह आम इंसान लगता है। रणवीर ने बाजीराव को न तो जरूरत से ज्यादा महान दिखाया है और न ही गलत, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाया है जो अपने फैसलों और उनके परिणामों से बनता है। दीपिका और प्रियंका दोनों के साथ उनकी केमिस्ट्री कहानी को और भावनात्मक बना देती है, जिससे यह लव ट्राएंगल बनावटी नहीं बल्कि सच्चा और दिल को छू लेने वाला लगता है।

दस साल बाद भी बाजीराव मस्तानी इसलिए खास है, क्योंकि यह सिर्फ एक ऐतिहासिक प्रेम कहानी नहीं है। यह ऐसी फिल्म है, जहां महिलाओं को मजबूत, भावुक, सम्मानित और याद रहने वाला दिखाया गया है। फिल्म के दस साल पूरे होने पर हम सिर्फ एक फिल्म का जश्न नहीं मनाते, बल्कि संजय लीला भंसाली की उस सोच की भी तारीफ करते हैं कि अच्छी और असरदार फिल्में मजबूत महिला किरदारों से बनती हैं। यही सोच भारतीय सिनेमा में उनके बड़े और खास योगदान को आज भी दिखाती है।

 

 

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