MP में बाघों की संख्या बढ़ी, लेकिन इनब्रीडिंग से आनुवांशिक संकट की चुनौती 

( आशीष कुर्ल )भोपाल: मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (PCCF) वी. एन. अम्बाडे ने राज्य में बाघों की संख्या में हुई उल्लेखनीय वृद्धि पर संतोष व्यक्त किया है। प्रदेश में बाघों की संख्या 526 से बढ़कर 785 हो गई है। यह उपलब्धि न केवल मध्यप्रदेश को देश में बाघ संरक्षण में शीर्ष पर स्थापित करती है, बल्कि भारत की कुल बाघ जनसंख्या (3,682 से 3,925) में भी इसका बड़ा योगदान है। उल्लेखनीय है कि विश्व के लगभग 75 प्रतिशत बाघ भारतीय वनों में पाए जाते हैं।

अम्बाडे ने इस संवाददाता से विशेष बातचीत में कहा, “हमारी टीमें चौबीसों घंटे राज्य के सभी वनों पर नजर रखती हैं, ताकि वन्यजीव सुरक्षित और स्वाभाविक वातावरण में रह सकें।”

हालांकि उन्होंने यह भी चेताया कि बाघों और अन्य वन्यजीवों के लिए खतरा केवल शिकारियों से नहीं है, बल्कि ‘इनब्रीडिंग’ यानी सीमित संख्या वाले बाघों में आपसी प्रजनन भी एक गंभीर चुनौती बन चुका है। उन्होंने कहा, “दो सौ वर्ष पहले जब राजा-महाराजा अलग-अलग राज्यों पर शासन करते थे, उनके महलों में लगे बाघों के ट्रॉफी आज के बाघों से लगभग दोगुने आकार के होते थे। आज बाघों के आकार और शक्ति में आई गिरावट का प्रमुख कारण इनब्रीडिंग है।”

उन्होंने स्पष्ट किया कि कुछ वन क्षेत्रों में बाघों की संख्या केवल पाँच से बीस के बीच है। ऐसे छोटे समूहों में आनुवांशिक आदान-प्रदान सीमित हो जाता है, जिससे इनब्रीडिंग का खतरा बढ़ जाता है और समय के साथ बाघों की शक्ति और अस्तित्व पर असर पड़ सकता है।

वन्यजीव विशेषज्ञों का मानना है कि इनब्रीडिंग से बाघों की आनुवांशिक विविधता घट जाती है, जिससे वे रोगों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त जन्मजात विकृतियाँ, शारीरिक असामान्यताएँ, प्रजनन क्षमता में कमी और प्रजाति के अस्तित्व पर संकट जैसी समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

अम्बाडे ने यह भी बताया कि बीते समय में अंधाधुंध शिकार और ट्रॉफी हंटिंग ने बाघों की संख्या में भारी कमी लाई थी, जिससे आनुवांशिक संतुलन बिगड़ गया। उन्होंने कहा, “आज संख्या में वृद्धि हो रही है, लेकिन बाघों के आनुवांशिक स्वास्थ्य का संरक्षण करना हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। यदि विविधता बनाए नहीं रखी गई, तो बढ़ती संख्या के बावजूद बाघों का भविष्य असुरक्षित रहेगा।”

विशेषज्ञ मानते हैं कि आधुनिक संरक्षण रणनीतियों में केवल शिकारियों से बचाव ही नहीं, बल्कि बाघों की आनुवांशिक विविधता को बनाए रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इसके लिए अभयारण्यों के बीच वन्यजीव गलियारे (wildlife corridors) विकसित करना, अलग-अलग क्षेत्रों से बाघों का स्थानांतरण करना और वैज्ञानिक स्तर पर आनुवांशिक स्वास्थ्य की निगरानी करना आवश्यक कदम माने जाते हैं।

मध्यप्रदेश के कान्हा, बांधवगढ़, पेंच, सतपुड़ा और पन्ना जैसे प्रसिद्ध अभयारण्य न केवल भारत बल्कि विश्व स्तर पर बाघ संरक्षण के लिए मिसाल बने हुए हैं। यहाँ की सक्रिय रणनीतियाँ — चाहे वह शिकार-रोधी गश्त हो या स्थानीय समुदायों की भागीदारी — इस सफलता की आधारशिला रही हैं।

अम्बाडे की चेतावनी यह याद दिलाती है कि संरक्षण केवल संख्या गिनने तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि बाघों की आनुवांशिक मजबूती और पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखना भी उतना ही आवश्यक है।

जैसे-जैसे भारत वैश्विक मंच पर बाघों की बढ़ती संख्या का जश्न मना रहा है, असली चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि ये शाही जीव केवल अधिक संख्या में ही नहीं, बल्कि मजबूत, विविध और आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित रह सकें।

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