एक देश एक चुनाव : कितना फायदा , कितना व्यवहारिक

सरकार ने देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के प्रावधान वाला बिल मंगलवार को लोकसभा में पेश कर दिया. सरकार ने यह बिल जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति को भेजना तय किया है.अगर यह विधेयक संसद के दोनों सदनों में पास हो जाता है, तो पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होने का रास्ता साफ हो जाएगा. निश्चित रूप से देश में एक साथ चुनाव कराने के लाभ हैं. सबसे बड़ा फायदा यह है कि देश और राज्यों को लंबे समय तक चलने वाली आचार संहिता से मुक्ति मिलेगी. आचार संहिता के कारण सरकारी कामकाज ठप हो जाता है. 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान 76 दिन की आचार संहिता थी. जब भी किसी राज्य में चुनाव होते हैं तो कम से कम 40 दिन का कामकाज पूरी तरह से ठप पड़ जाता है. इसके अलावा चुनाव में बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारी और अधिकारियों की आवश्यकता पड़ती है. जाहिर है इसका भी असर सरकार के कामकाज पर पड़ता है. भारी संख्या में सुरक्षा बलों की तैनाती. लॉजिस्टिक, वेतन भत्ते इत्यादि पर अरबों रुपए खर्च होते हैं.देश में प्रतिवर्ष कहीं ना कहीं चुनाव होते रहते हैं.जाहिर है एक विकासशील में इतना सरकारी कामकाज ठप होना अफोर्ड नहीं किया जा सकता. इसलिए वन नेशन वन इलेक्शन वैसे तो स्वागत योग्य है, लेकिन व्यवहारिक रूप से इसमें भारी कठिनाइयां भी हैं. इस बिल को अमल में लाना बेहद कठिन है. जाहिर है सरकार भी जल्दबाजी में नहीं दिख रही है. जब, संयुक्त संसदीय समिति में बिल गया है, तो वहां व्यापक विचार विमर्श होगा, इसके बाद जब इस बिल को संसद में पेश किया जाएगा, तब भी चर्चा होगी. बहरहाल,वन नेशन वन इलेक्शन का विचार नया नहीं है. 1983 में चुनाव आयोग इस आशय का सुझाव सरकार को दे चुका है. तत्कालीन इंदिरा गांधी की सरकार ने इस विषय पर विचार विमर्श करने के लिए सर्वदलीय बैठक भी बुलाई थी. पीवी नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेई के कार्यकाल में भी इस मामले में विचार विमर्श किया गया. एक बार विधि आयोग ने भी इस संबंध में सुझाव दिया था. विशेषज्ञों के अनुसार चुनाव सुधार की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण कदम होगा. वन नेशन वन इलेक्शन से न केवल सरकारी चुनाव खर्च में बचत की जा सकेगी बल्कि पार्टियों और उम्मीदवारों के खर्चों में भी बचत होगी. वैसे देश में 1952 से लेकर 1971 तक लगातार एक साथ चुनाव होते आए हैं. इसलिए यह विचार बिल्कुल नया नहीं है. कांग्रेस आज इस बिल का विरोध कर रही है लेकिन खुद कांग्रेस के जमाने में लगातार चार चुनाव एक साथ हुए हैं. हालांकि तब ऐसा रूटिन कोर्स में हुआ, इसके लिए तब किसी कानून की जरूरत नहीं पड़ी. अब कांग्रेस इस कानून को संविधान के मूल ढांचे और देश के संघीय ढांचे पर हमला बता रही है. लेकिन जब 1952 के बाद लगातार चार चुनाव एक साथ हुए,तब संघीय ढांचे को कितना नुकसान हुआ यह भी कांग्रेस को बताना चाहिए ? जाहिर है इस आलोचना में बहुत अधिक दम नहीं है. दरअसल,इस बिल का राजनीतिक कारणों से विरोध किया जा रहा है.बहरहाल,इस बिल के तहत संविधान के कई प्रावधानों में बदलाव का प्रस्ताव है, जैसे अनुच्छेद 83 (संसद का कार्यकाल), अनुच्छेद 172 (राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल), और संविधान में एक नया अनुच्छेद 82 ए जोडऩे का प्रस्ताव भी है, जो पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की अनुमति देगा. जहां तक क्षेत्रीय दलों के समाप्त होने का सवाल है तो यह भी आशंका निर्मूल है, क्योंकि कई बार लोकसभा के साथ विधानसभा के चुनाव हुए हैं जिनमें लोकसभा में राष्ट्रीय पार्टी और विधानसभा में क्षेत्रीय दल विजयी हुए हैं. 2019 में लोकसभा के साथ उड़ीसा और आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी हुए. लोकसभा में भाजपा को अकेले 303 सीटें मिली, साथ में हुए विधानसभा चुनावों में आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी और उड़ीसा में बीजू पटनायक भारी बहुमत से जीते. यानी जनता ने राष्ट्रीय मुद्दों और स्थानीय मुद्दों में फर्क कर लिया. जाहिर है इस बिल में कुछ भी गलत नहीं है,लेकिन फिर भी व्यापक विचार करके ही इस पर आगे बढऩा चाहिए.

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