चुनाव नजदीक आ रहे हैं. ऐसे में सभी राजनीतिक दलों से अपेक्षा है कि वो न केवल चुनाव की गरिमा बनाएं बल्कि, व्यक्तिगत और विद्वेष फैलाने वाले बयान न देकर मुद्दों की राजनीति करें. हम दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र होने का दावा करते हैं.इसलिए सभी राजनीतिक दलों को मुद्दों के आधार पर राजनीति करनी चाहिए. अमेरिका में इन दिनों चुनाव के लिए रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर प्रत्याशी चयन की कवायद चल रही है. राष्ट्रपति पद के दावेदार अपने-अपने एजेंडे पर बहस कर रहे हैं. रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार बता रहे हैं कि यदि राष्ट्रपति का पद उनकी पार्टी के पास आता है तो वो अमेरिका के लिए क्या करेंगे. दूसरी तरफ डेमोक्रेट भी यही कर रहे हैं. ब्रिटेन में संसदीय लोकतंत्र है लेकिन वहां भी यही परंपरा है. फ्रांस सहित यूरोप के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के समय राजनीतिक दल भविष्य का एजेंडा सामने रखकर चुनाव लड़ते हैं. क्या भारत में ऐसा हो रहा है ? यहां तो दुर्भाग्य से सभी राजनीतिक दल एक दूसरे पर कमर के नीचे का वार कर रहे हैं. व्यक्तिगत आरोप और प्रत्यारोप के साथ ही घृणा फैलाने का काम किया जा रहा है. तमिलनाडु की डीएम के पार्टी ऐसा करने में सबसे आगे है. डीएमके के महासचिव और पूर्व केंद्रीय मंत्री डी राजा ने हाल ही में भगवान राम और देश की अवधारणा को लेकर विवादित टिप्पणियां की हैं. इन टिप्पणियों को हेट स्पीच का नाम दिया जा सकता है. डी राजा ने यह विवादित बयान तब दिया, जब सुप्रीम कोर्ट ने उनके एक नेता को सनातन के खिलाफ बोलने के लिए फटकारा.दरअसल, सनातन धर्म पर उस विवादित टिप्पणी को लेकर देश की शीर्ष अदालत ने तमिलनाडु के मंत्री उदय निधि स्टालिन को फटकार लगाई है जिसमें सनातन धर्म की तुलना कोरोना, डेंगू व मलेरिया जैसी बीमारियों से करने के साथ इसे खत्म करने की बात कही गई थी.जाहिर है कि इस विवादित टिप्पणी पर देश भर में जैसी प्रतिक्रिया आई उसे अदालत ने गंभीर माना है.
दरअसल, नेताओं का यह शगल भी बन गया है कि पहले विवादित बयान दो, उसकी प्रतिक्रिया को देखो, अपने दल की नहीं खुद के प्रचार की चिंता करो और बहुत ज्यादा बवाल होता दिखे तो माफीनामा पेश कर दो. सुप्रीम कोर्ट ने स्टालिन के लिए ठीक ही कहा कि वे आम आदमी नहीं बल्कि मंत्री हैं. उनकी किसी भी टिप्पणी के क्या परिणाम होंगे इसका अंदाजा भी उन्हें होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने हेट स्पीच यानी नफरती भाषण को लेकर सख्त टिप्पणी पहली बार नहीं की है.पहले भी कई बार वह सख्ती दिखा चुका है. पिछले साल तो कोर्ट ने यहां तक कह दिया था कि राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों को ऐसे मामलों में स्वप्रेरणा से प्रसंज्ञान लेकर शिकायत नहीं मिलने पर भी अपनी तरफ से एफआइआर दर्ज करनी चाहिए. हैरत की बात यह है कि तमिलनाडु के मंत्री ने उनके खिलाफ इस प्रकरण में विभिन्न राज्यों में दर्ज मुकदमों को एक साथ करने की मांग अदालत से की है. अदालत ने इसीलिए स्टालिन से यह तल्खी भरा सवाल भी पूछ लिया कि अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग करने के बाद वे याचिका लेकर शीर्ष कोर्ट तक क्यों आए हैं.अभी इस प्रकरण की सुनवाई जारी है. अहम सवाल यही है कि आखिर हमारे जनप्रतिनिधियों को हर बार कोर्ट को ही ऐसी नसीहतें क्यों देनी पड़ती हैं? आखिर क्यों नेताओं के विवादित बयानों से हमारे देश में समुदायों के बीच संघर्ष और अविश्वास की काली घटाएं छाने लग जाती हैं? अब चूंकि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं, ऐसे में इन सवालों का जवाब तलाशना ज्यादा जरूरी हो गया है. जरूरी इसलिए भी कि ठोस कार्रवाई का कोई प्रावधान नहीं है. इसलिए खुद को सुरक्षा कवच पहना हुआ मानते हुए इन नेताओं को लगता है कि वे कानून से ऊपर हैं.
चुनाव के मौकों पर हेट स्पीच के बावजूद नेताओं को हार का सामना नहीं करना पड़ता. इसलिए वे इसका चुनावी फायदा उठाने की कोशिश भी करते हैं. जब तक ऐसे बयानवीरों को चुनाव लडऩे के अयोग्य नहीं ठहराया जाता, तब तक ऐसे प्रकरण पूरी तरह खत्म होना मुश्किल हैं.