जम्मू और कश्मीर में इन दिनों चुनाव प्रचार अभियान जोरों पर है.वहां 18 सितंबर, 25 सितंबर और एक अक्टूबर को मतदान होगा और चार अक्टूबर को मतों की गिनती होगी. चुनाव अभियान के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया जा रहा है उससे अलगाववाद की गंध आती है.चुनाव अपनी जगह है लेकिन किसी भी राजनीतिक दल या नेता को इस तरह के भाषण नहीं देना चाहिए जिससे आतंकवादियों के हौसले बुलंद हों और पाकिस्तान के नैरेटिव को प्रोत्साहन मिले. खास तौर पर फारूक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला को संयम से काम लेना चाहिए क्योंकि ये दोनों केंद्र में मंत्री और प्रदेश में मुख्यमंत्री रह चुके हैं. यह दोनों ही जिम्मेदार नेता माने जाते हैं जिन्होंने अनेक अवसरों पर राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया है.दरअसल, नेशनल कांफ्रेंस ने अपने घोषणा पत्र में जो वादे किए हैं उनसे भी अलगाववादियों के हौसले बुलंद होंगे. चुनाव लोकतंत्र में एक नियमित प्रक्रिया है, जिसका उद्देश्य सत्ता की प्राप्ति भी है लेकिन देश किसी भी पद या सत्ता से बड़ा है. इसलिए कश्मीर के चुनाव में हिस्सा ले रहे सभी नेताओं और राजनीतिक दलों को देश हित सर्वोपरि रखना चाहिए. एक रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई कश्मीर घाटी में चुनाव का फायदा लेना चाहती है. वहां अलगाववादी तत्वों को चुनाव लड़ा कर जानबूझकर माहौल में जहर फैलाया जा रहा है. सुरक्षा विशेषज्ञ और कश्मीर समस्या पर अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं के इशारों पर प्रतिबंधित संगठन जमात-ए-इस्लामी के पांच सदस्यों ने जम्मू कश्मीर विधान सभा के लिये निर्दलीय रूप से नामांकन पत्र भर दिया है. इससे कश्मीर घाटी का राजनैतिक और सामाजिक वातावरण गरमा गया है.कश्मीरी राजनेताओं की शब्द शैली भी बदली है और मस्जिदों में तकरीरें भी बढ़ीं हैं.
जमात ने 1987 के बाद से किसी चुनाव में हिस्सा नहीं लिया था और 1993 से 2003 के बीच हुये हर चुनाव को “हराम” बताकर बहिष्कार की अपील की थी,लेकिन जमात ने इस बार अपनी रणनीति में बदलाव किया है. जमायत-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध है.जमात से जुड़े कार्यकर्ता अपने बैनर से चुनाव नहीं लड़ सकते.इसलिये वे निर्दलीय रूप से चुनाव मैदान में आये हैं.अभी पांच सदस्यों ने विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में अपने अपने नामांकन पत्र दाखिल किये हैं.संभावना है कि घाटी की कुछ और सीटों पर भी जमात से जुड़े कार्यकर्त्ता अपने नामांकन भर सकते हैं.जिन पांच सदस्यों ने अपने नामांकन प्रस्तुत किये उनकी शैली कुछ ऐसी थी जिससे लगता है कि ये पांचों लोग किसी रणनीति के अंतर्गत ही नामांकन पत्र प्रस्तुत करने आये.इन नेताओं ने नामांकन दाखिल करने से पूर्व कहा कि वो कश्मीरियत के लिये चुनाव लड़ रहे हैं. कश्मीर की मस्जिदों और मदरसों के रूप में जमायते इस्लामी का एक बड़ा नेटवर्क है. कश्मीर की जिन मस्जिदों से कट्टरपंथ के प्रचार की खबरें आतीं हैं अथवा जिन मदरसों में आतंकवादी तैयार होने की खबरें आती है वे जमायते इस्लामी के प्रभाव वाले क्षेत्र माने जाते हैं. पाकिस्तान के कुछ आतंकवादी संगठनों से संपर्क होने के आरोप भी इस संगठन पर लगे हैं. भारत सरकार ने वर्ष 2019 में इस संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था. जमात की गतिविधियों की वजह से सुरक्षा एजेंसी अतिरिक्त सतर्कता बरत रही है, जो कि जरूरी भी है. यह ध्यान रखना होगा कि यही जमात बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के बाद हिंदुओं पर हमले के लिए जिम्मेदार है. जमाते इस्लामी का खुला ऐलान है कि उनका संगठन दुनिया के इस्लामी कारण को लेकर जिहाद कर रहा है. ऐसे वातावरण में यदि केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री रहे जिम्मेदार राजनेता भी अलगावाद की भाषा बोलेंगे तो कश्मीर में कानून और व्यवस्था की एक नई समस्या खड़ी हो जाएगी. धारा 370 हटाने के बाद कम से कम घाटी में आतंकी वारदातों में 77 $फीसदी की कमी आई है. ऐसा ना हो कि वहां के चुनाव देश की शांति और सुरक्षा की दृष्टि से महंगे साबित हों. हिंदूवादी संगठनों को भी जम्मू और कश्मीर के चुनाव के संदर्भ में संयम दिखाने की जरूरत है. कुल मिलाकर चुनाव अभियान के दौरान सभी राजनीतिक दलों को संयम रखना चाहिए.