मुफ्त की योजनाओं पर नियंत्रण जरूरी

पिछले 15 दिनों से शेयर बाजार लगातार नीचे गिर रहा है. बाजार का यह ट्रेंड विश्वव्यापी है.अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संस्थाएं चिंता जाहिर कर रही हैं कि दुनिया की अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ रही है. इसके कई कारण है लेकिन एक महत्वपूर्ण कारण डोनाल्ड ट्रंप का चुनाव जीतना भी है. उनकी नीतियों और बयानों ने आर्थिक जगत में उथल-पुथल मचा दी है. ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को राजकोषीय घाटे में कमी करने की जरूरत है. जबकि राज्य सरकारें मुफ्त की योजनाएं यानी रेवडिय़ां बांटने पर उतारू हैं. हाल ही में दिल्ली कैबिनेट ने ‘महिला समृद्धि योजना’ पर मुहर लगाई और गरीबी-रेखा के तले (बीपीएल) वाली महिलाओं को 2500 रुपए प्रति माह देने की घोषणा की. जब यह योजना लागू हो जाएगी, तो करीब 17 लाख महिलाओं को फायदा मिलने का अनुमान है.दिल्ली में करीब 72 लाख महिलाएं हैं, जिनमें से करीब 45 प्रतिशत ने भाजपा के पक्ष में वोट दिया था. अकेली इस योजना पर सालाना लगभग 52 सौ करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे. जबकि दिल्ली का कुल बजट लगभग 75000 करोड़ है. इसका बड़ा हिस्सा पेंशन और वेतन यानी एस्टेब्लिशमेंट पर खर्च होता है. आने वाले 2 वर्षों में आठ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं. जाहिर है सभी राज्यों में खुलकर रेवडिय़ां बांटी जाएंगी. दरअसल, अब समय आ गया है जब इस सिलसिले को रोकने की आवश्यकता है. अन्यथा देश की अर्थव्यवस्था को बेपटरी होने से कोई नहीं बचा सकता. देश के कई राज्यों में अर्थव्यवस्था चरमराने लगी है.जैसे पंजाब में 2022 के विधानसभा चुनाव के समय आम आदमी पार्टी ने महिलाओं को 1000 रूपए प्रति महीना देने का वादा किया था. लेकिन 3 वर्ष के बाद भी पंजाब की भगवंत सिंह मान सरकार अपना वादा पूरा नहीं कर पा रही है. यही स्थिति कर्नाटक, हिमाचल, तेलंगाना सरकारों की है. जाहिर है अर्थव्यवस्था की हालत को देखते हुए इस पर अब रोक लगाने की जरूरत है.बहरहाल, एक और ख़बर छन कर आ रही है कि भाजपा ‘मुफ़्त की रेवडिय़ों’ से इतना परेशान हो चुकी है कि पार्टी के भीतर ‘वैकल्पिक मॉडल’ पर विमर्श किया जा रहा है.यह विचार तभी कौंधा था, जब दिल्ली चुनाव के ‘संकल्प-पत्र’ पर रणनीति तैयार की जा रही थी, लेकिन केजरीवाल की ‘रेवड़ी राजनीति’ ने देश के सभी प्रमुख राजनीतिक दलों को ‘मुफ्तखोरी’ परोसने को बाध्य किया है.भाजपा को भी दिल्ली चुनाव में मजबूरन करना पड़ा.अब भाजपा 2026 में असम चुनाव के साथ ही रेवडिय़ों के बजाय आर्थिक, व्यावसायिक मदद के वैकल्पिक मॉडल पेश करना चाहती है. देश के प्रमुख 7 राज्यों-मप्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, झारखंड, गुजरात-में 8.1 करोड़ महिलाओं को करीब 1.24 लाख करोड़ रुपए बांटने पड़ रहे हैं. यह राशि राज्यों के कुल बजट की 12 प्रतिशत है. मुफ्तखोरी की रेवडिय़ों ने राज्यों और देश की आर्थिक हालत को बुरी तरह प्रभावित किया है. राज्यों पर 2.5 लाख करोड़ से 9 लाख करोड़ रुपए का कर्ज है. भाजपा जहां पहले रेवडिय़ों की घोषणा कर चुकी है और उसकी सरकार है, वहां चुनावी वायदे के मुताबिक रेवडिय़ां बांटी जाती रहेंगी, लेकिन 2028 के बाद भाजपा शासित सभी राज्यों में ‘वैकल्पिक व्यवस्था’ होगी. सवाल है कि क्या नया वैकल्पिक मॉडल महिलाओं या स्वयं सहायता समूहों पर ही लागू होगा ? भाजपा के भीतरी सूत्रों ने खुलासा किया है कि छोटे दुकानदार, रेस्तरां वाले, निम्न आय वर्ग के परिवार, पिछड़े, दलित और समाज के जरूरतमंद लोगों को सरकार सालाना एकमुश्त राशि देगी. बैंकों के जरिए यह राशि फिर दोगुनी की जाएगी. सवाल यह भी है कि मुफ्त की रेवडिय़ां जितने वोटों को आकर्षित कर सकती हैं, क्या वैकल्पिक मॉडल से संभव होगा ? यदि अर्थव्यवस्था की चिंता है, तो इस मुद्दे पर सभी दलों में सहमति होना अनिवार्य है. क्या ऐसी सर्वदलीय सहमति भी संभव होगी ?

 

 

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