एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से रेवड़ी कल्चर पर नाराजगी जाहिर की उसका सभी राजनीतिक दलों को संज्ञान लेना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणियों में अनेक गंभीर बातें कही हैं. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि मुफ्त सुविधाएं एवं सीधे धन देने वाली योजनाएं लोगों को अकर्मण्य बना रही हैं और लोग काम करने से बच रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने यह विचारोत्तेजक प्रश्न भी किया कि क्या ऐसा करके हम लोगों को परजीवी नहीं बना रहे हैं ? नि:संदेह ऐसा ही किया जा रहा है और इसकी पुष्टि इससे होती है कि कई राज्यों में उद्योगों को दूसरे राज्यों से श्रमिक लाने पड़ रहे हैं. तथ्य यह भी है कि कुछ उद्योग श्रमिकों की कमी की शिकायत करते रहे हैं.दरअसल,इस सच से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि मुफ्त की योजनाओं के कारण लोगों में श्रम का महत्व कम हो रहा है. यदि बैठे ठाले नगदी रुपए, मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त मकान,मुफ्त सिलेंडर मिलेगा तो कोई काम करने क्यों जाएगा ? किसी जन कल्याणकारी राज्य में मुफ्त चिकित्सा और मुफ्त शिक्षा देना समझ में आता है लेकिन पर्यावरण के नुकसान की कीमत पर तैयार की गई बिजली, पानी इत्यादि मुफ्त में क्यों मिलना चाहिए ? सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के आधार पर ऐसा कोई निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा कि शीर्ष अदालत जन कल्याणकारी योजनाओं की उपयोगिता पर सवाल खड़े कर रही है, क्योंकि अपेक्स कोर्ट ने यह भी कहा है कि रेवडिय़ां बांटने से बेहतर है लोगों को मुख्यधारा का हिस्सा बनाना. कमजोर लोगों के आर्थिक उत्थान के लिए योजनाएं चलाई ही जानी चाहिए, लेकिन इस तरह कि ऐसे लोग अपनी आय बढ़ाने और स्वावलंबी बनने के लिए तत्पर हों. इससे ही वे अपने और देश के आर्थिक उत्थान में सहायक बन पाएंगे. अभी जनकल्याण और निर्धनता निवारण के नाम पर ऐसी कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, जो लोगों को आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा करने के लिए प्रेरित नहीं कर पा रही हैं.ऐसी योजनाएं कमजोर तबकों के आर्थिक उन्नयन में सहायक बनने के बजाय उन्हें पराश्रित ही बनाती हैं. लोगों को सदा के लिए सरकारी योजनाओं पर निर्भर बनाए रखना उन्हें एक तरह से पंगु करना ही है. अच्छा हो कि हमारे नीति-नियंता यह समझें कि किसी गरीब मछुआरे को मछली देने से बेहतर होता है उसे मछली पकडऩे में समर्थ बनाना. बहरहाल,हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत पर जीडीपी का 81 प्रतिशत कर्ज है. जाहिर है यदि राजनीतिक दल इसी तरह रेवड़ी योजनाएं लाते रहे तो फिर अर्थव्यवस्था का भगवान ही मालिक है ! अर्थशास्त्री कहते हैं कि यदि किसी सरकार को कर्ज लेना हो तो उसका निवेश इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं में करना चाहिए जिससे देश की तरक्की हो और आर्थिक विकास बढ़े, लेकिन यदि मुफ्त अनाज या रेवडिय़ां बांटने के लिए कर्ज लिया जाएगा, तो भारत भी रसातल में पहुंच सकता है. बेहतर तो यह होगा कि सभी राजनीतिक दल मुफ्त की योजनाएं बंद करे और युवाओं को रोजगार या स्वरोजगार उपलब्ध करवाए.अगर सभी के हाथों में पैसा होगा तो आवश्यक वस्तुएं तो बाजार से खरीदी जा सकती हैं. दरअसल,देश की समस्याओं का हल युवाओं को रोजगार के अवसर देने में है ना कि मुफ्त अनाज या मुफ्त बिजली देने में !
जनकल्याणकारी राज्य या गुड गवर्नेंस की अवधारणा में गरीब जनता के हित में चलाई गई योजनाओं का निश्चित ही महत्व है, लेकिन यदि कोई राजनीतिक दल यह मानकर चलेगा कि केवल मुफ्त खोरी से ही जनता संतुष्ट हो जाएगी तो यह उसकी बड़ी भूल होगी. कुल मिलाकर युवाओं को मुफ्त की रेवड़ी नहीं, बल्कि रोजगार और व्यापार के अवसर चाहिए. उसे उच्च तकनीक और अच्छी शिक्षा चहिए. यदि हमारे देश को स्वावलंबी बनाना है तो मुफ्त की योजनाएं बंद करनी होंगी. कुल मिलाकर इस संदर्भ में ही सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी को देखा जाना चाहिए.