पृथ्वी का तापमान और पर्यावरण संतुलन

सोमवार को दुनिया भर में पृथ्वी दिवस मनाया गया. स्वाभाविक रूप से इस समय दुनिया की सबसे बड़ी चिंता पर्यावरण संतुलन और पृथ्वी के तापमान को लेकर है. जिस तेजी से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है. उससे ऐसा लग रहा है कि पुराणों में जिस प्रलय की कल्पना की गई है वह अधिक दूर नहीं है ! दरअसल,1969 में जब दक्षिणी कैलिफोर्निया के तट पर खनिज तेल दुर्घटनावश गिर गया तो सेनेटर गेलोर्ड नेल्सन ने उस क्षेत्र का दौरा करके समुद्री जीवों की तबाही देखी, जो समुद्र के पानी पर तेल के फैलने के कारण हुई थी.नेल्सन ने इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाने के लिए ‘टीच इन’ कार्यक्रम कॉलेजों में आयोजित किए.डेनिस हेस और अन्य आंदोलनकारियों के साथ मिल कर इस जागरूकता अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने का निश्चय किया गया, जिसकी शुरुआत 22 अप्रैल 1970 को राष्ट्रव्यापी स्तर पर की गई और इस दिन को पृथ्वी दिवस का नाम दिया गया.इस कार्यक्रम को भारी जनसमर्थन मिला. इससे बने दबाव के चलते ही अमरीका में ‘शुद्ध वायु कानून’ और ‘शुद्ध जल कानून’ पारित हुए.इसे वर्तमान पर्यावरण आंदोलनों की शुरुआत भी माना जाता है. धीरे-धीरे पृथ्वी दिवस को वैश्विक स्तर पर मनाया जाने लगा.इस समय 192 देशों में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है, ताकि पृथ्वी के पर्यावरण को हो रही हानियों के प्रति जागरूकता फैले और हमारे रहन-सहन, उत्पादन पद्धतियां और कायदे कानून पर्यावरण मित्र विकास की दिशा में मुड़ें.बहरहाल, यह विषय इतना गंभीर और संवेदनशील है कि पृथ्वी की चिंता हमें रोज करनी चाहिए. हमारे पूर्वज नित्य प्रतिदिन सुबह उठकर इसी वजह से प्रकृति और पृथ्वी की आराधना करते रहे हैं. दरअसल,जलवायु परिवर्तन वर्तमान में पर्यावरण की मुख्य समस्या बनती जा रही है.इसकी ओर ध्यान देना जरूरी हो गया है.इस वर्ष पृथ्वी दिवस का विषय वस्तु ‘पृथ्वी ग्रह बनाम प्लास्टिक’ रखा गया था.प्लास्टिक मिट्टी, पानी और वायु का प्रदूषक बनता जा रहा है.जमीन पर पड़े हुए प्लास्टिक से धूप के कारण अपर्दन से टूट कर सूक्ष्म कण मिट्टी में मिल जाते हैं और मिट्टी के उपजाऊपन को नष्ट करने का काम करते हैं.पानी में मिल कर मछलियों के शरीर में पहुंच कर खाद्य श्रृंखला का भाग बन कर मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बन जाते हैं.जलाए जाने पर वायु में अनेक विषैली गैसें वायुमंडल में छोड़ते हैं जिससे वैश्विक तापमान वृद्धि के साथ-साथ मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरे पैदा हो रहे हैं.प्लास्टिक दैनिक जीवन का ऐसा भाग बन गया है कि इससे बचना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है.प्लास्टिक का प्रयोग कम करना, पुनर्चक्रीकरण, और जो बच जाए उसको उत्तम धुआं रहित प्रज्वलन तकनीक से ताप विद्युत बनाने में प्रयोग किया जा सकता है.हालांकि इससे भी थोड़ा गैस उत्सर्जन तो होता है, किन्तु जिस तरह शहरी कचरा डंपिंग स्थलों में लगातार लगने वाली आग और गांव में खुले में जलाया जा रहा प्लास्टिक धुआं फैलता जा रहा है, उससे तो यह हजार गुणा बेहतर है. स्वीडन ने तो यूरोप के अनेक देशों से सूखा कचरा आयात करके उससे बिजली बनाने का व्यवसाय ही बना लिया है.स्वीडन के पास जो तकनीक है उसमें केवल दशमलव दो (.2) प्रतिशत ही गैस उत्सर्जन होता है.प्लास्टिक के विकल्प के रूप में पैकिंग सामग्री तैयार करना नवाचार की दूसरी चुनौती है. गांव में भी अब तो प्लास्टिक कचरे के अंबार लगते जा रहे हैं.

हमारे देश भारत में कुल विद्युत उत्पादन 428 गीगावाट है, जिसमें से 71 प्रतिशत कोयले और जीवाश्म ईंधन से हो रहा है. स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन 168.96 गीगावाट है, जिसमें से 42 गीगावाट जल विद्युत का उत्पादन है, किन्तु जल विद्युत भी जब बड़े बांधों के माध्यम से बनाई जाती है तो जलाशयों में बाढ़ से संचित जैव पदार्थ आक्सीजन रहित सडऩ द्वारा मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं. मीथेन कार्बन डाईआक्साइड से छह गुणा ज्यादा वैश्विक तापमान वृद्धि का कारक है.इसलिए एक सीमा से ज्यादा जल विद्युत का प्रसार भी ठीक नहीं.सौर ऊर्जा एक बेहतर विकल्प के रूप में उभर रही है. भारतवर्ष में 2030 तक 500 गीगावाट स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है.आशा है इसे हम प्राप्त कर सकेंगे. कुल मिलाकर पृथ्वी का बढ़ता तापमान और पर्यावरण संतुलन इतने गंभीर विषय हैं कि जिन पर लगातार न केवल चर्चा होनी चाहिए बल्कि इनके समाधान के लिए ठोस प्रयास भी होने चाहिए.

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