जनसंख्या के आँकड़ों के मद्देनजऱ देश में एक बहस शुरू हो गई हैं. रिपोर्ट के अनुसार भारत की जनसंख्या 144 करोड़ से अधिक है, जो विश्व में सर्वाधिक है.हालांकि 2021 में जनगणना नहीं हुई थी, क्योंकि वह कोरोना वैश्विक महामारी का दौर था. जनगणना 2011 में की गई थी, उसके बाद 13 लंबे साल गुजर चुके हैं, लेकिन कोई अधिकृत जनगणना नहीं हुई है.2011 में हिंदू आबादी 79.80 प्रतिशत थी, जबकि मुस्लिम आबादी 14.20 प्रतिशत थी. मुसलमानों की बढ़ोतरी दर करीब 25 प्रतिशत थी, जबकि हिंदुओं की बढ़ोतरी दर करीब 17 प्रतिशत थी.यानी हिंदुओं की तुलना में मुसलमान बढ़ रहे थे.आजादी के बाद 1951 में देश में करीब 3.5 करोड़ मुसलमान थे, जिनकी आबादी 2023 में बढ़ कर 20 करोड़ के पार हो गई. अब तो यह आंकड़ा भी बदल चुका होगा.गौरतलब तथ्य यह है कि 1951 से आज तक मुसलमानों की आबादी एक बार भी नहीं घटी, लगातार बढ़ती रही है.यह दरअसल,प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की एक रपट के आंकड़े हैं और जो रुझान सामने आए हैं,वो चौकाने वाले हैं. रपट में 1950 से 2015 तक जनसंख्या के रुझान के आंकड़े दिए गए हैं. यह रिपोर्ट तब सामने आई जब लोकसभा की 282 सीटों पर मतदान हो चुका था.
रपट के मुताबिक, 1950 से 2015 तक की 65 साल की अवधि में बहुसंख्यक हिंदू आबादी 84.68 प्रतिशत से घट कर 78.6 प्रतिशत हो गई है, जबकि मुस्लिम आबादी 9.84 से बढ़ कर 14.09 फीसदी हो गई है. हिंदू करीब 8 प्रतिशत घटे हैं और मुसलमानों की बढ़ोतरी 43.15 प्रतिशत हुई है.आबादी का यह असंतुलन चुनौतीपूर्ण , चिंताजनक और विस्फोटक हो सकता है! भारत इंडोनेशिया, मलेशिया, सूडान, सर्बिया आदि देशों में आबादी के असंतुलन के कारण विभाजन देख चुका है. देश दो फाड़ हुए हैं और नए देश बने हैं. इंडोनेशिया कभी हिंदू, बौद्ध बहुल देश था, लेकिन आज दुनिया के सबसे अधिक मुसलमान इंडोनेशिया में ही रहते हैं और बौद्ध अल्पसंख्यक हो गए हैं.भारत में मुसलमान आबादी में वे शामिल नहीं हैं, जो जनगणना जैसे अभियानों का बहिष्कार करते रहे हैं.65 साल की मुस्लिम आबादी में रोहिंग्या भी शामिल नहीं हैं.
इस लिहाज से मुस्लिम आबादी की बढ़ोतरी अधिक हो सकती है.रपट के मुताबिक, हिंदुओं के साथ-साथ जैन और पारसी की आबादी भी घटी है.मुसलमानों के अलावा सिख, बौद्ध, ईसाई की आबादी बढ़ी है.जैन, पारसी, ईसाई, बौद्ध, सिख समुदाय भी अल्पसंख्यक वर्ग में आते हैं. देश में पारसियों की आबादी तो करीब 57000 बताई जाती है, लेकिन उन्होंने अपने अधिकारों के लिए कभी भी जन-आंदोलन नहीं छेड़े.मुस्लिम आबादी लगातार बढ़ती रही है, इसके बुनियादी कारण बांग्लादेश से घुसपैठ, धर्मान्तरण, मुस्लिम सांसदों, नेताओं द्वारा ज्यादा बच्चे पैदा करने के आह्वान, जैसी सोच, 2011 तक ज्यादा प्रजनन दर, अशिक्षा, अज्ञानता आदि हैं. यह बढ़ोतरी देश की खाद्य सुरक्षा के लिए भी गंभीर चुनौती है.देश के संसाधन कम पड़ सकते हैं.पहले घुसपैठ बांग्लादेश से अधिक हुई, क्योंकि 1971 में पाकिस्तान विभाजन के साथ युद्ध भी हुआ. लोग बांग्लादेश से भाग कर भारत में आए. संघ-भाजपा 2 करोड़ से अधिक ऐसे घुसपैठिए मानते रहे हैं. जब म्यांमार से पलायन शुरू हुआ, तो रोहिंग्या मुसलमानों ने भारत में घुसपैठ की.म्यांमार के बाद भारत में हिंदुओं की आबादी में सर्वाधिक गिरावट हुई है.
रपट बताती है कि दुनिया में बहुसंख्यकों की हिस्सेदारी 22 प्रतिशत घटी है. प्रजनन दर की बात बेहद महत्वपूर्ण है. दशकों तक मुसलमानों की औसत प्रजनन-दर 4-6 प्रतिशत रही, लेकिन अब 2021 वाले दौर में यह घटकर 2.36 प्रतिशत हो गई है. यह प्रजनन-दर हिंदुओं में औसतन 1.94 फीसदी है. निष्कर्ष फिलहाल यह कहने का बिल्कुल नहीं है कि भारत इस्लामीकरण की ओर बढ़ रहा है, लेकिन आबादी का यह असंतुलन इसी गति से जारी रहा, तो कई संकट उभर सकते हैं. बहरहाल,इस रिपोर्ट से अनेक सवाल खड़े हुए हैं. सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री की आर्थिक परिषद ने धार्मिक आधार पर जनसंख्या के आंकड़े क्यों एकत्रित किए. जबकि आर्थिक परिषद का काम आर्थिक पिछड़ेपन का फीडबैक लेना होना चाहिए ! यदि धार्मिक जनगणना करनी ही थी तो इसे सार्वजनिक करने की और ठीक चुनाव के समय प्रसारित करने की क्या आवश्यकता थी ? कुछ ऐसे सवाल हैं जो स्वाभाविक रूप से उठने चाहिए ! जहां तक जनसंख्या असंतुलन का प्रश्न है तो निश्चित ही इससे देश की आंतरिक सुरक्षा को चुनौतियां हो सकती है . देश के संसाधन सीमित है इसलिए बढ़ती आबादी देश के सामने बड़ी चुनौती खड़ी कर सकती है .