बजट का मौसम नजदीक है. फरवरी, मार्च में केंद्र तथा सभी राज्य सरकारों के बजट पेश होंगे. एक रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार और राज्य सरकारें भारी कर्ज में चल रही हैं. खास तौर पर जिन राज्यों में लाभार्थी योजनाएं चल रही हैं वहां बजट का घाटा बढ़ता जा रहा है. स्थिति यह है कि महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में लाडली बहना योजना की समीक्षा की जा रही है ताकि गलत हाथों में पैसा ना पहुंचे. पंजाब,कर्नाटक, हिमाचल, केरल, तेलंगाना सभी राज्यों की आर्थिक स्थिति लाभार्थी योजनाओं के कारण खराब होती जा रही है. यह विषय इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि एक तरफ बजट का मौसम है, दूसरी ओर दिल्ली के चुनाव चल रहे हैं जहां सभी दलों ने बढ़-चढक़र मुफ्त की योजनाओं का ऐलान किया है.दरअसल,सस्ती लोकप्रियता पाने के लिये मुफ्त का जो चंदन घिसा जा रहा था, वह राज्यों की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रहा है. स्थिति यह है कि कर्मचारियों को वेतन व रिटायर कर्मियों को समय पर पेंशन देने में मुश्किल आ रही है.दरअसल, राजनेताओं को इस बात का अहसास नहीं है कि वेतन पर आश्रित कर्मियों को राशन-पानी, बच्चों की स्कूल की फीस व लोन की ईएमआई समय पर चुकानी होती है.जिसको लेकर बैंक कोई रहम नहीं दिखाते हैं. बहरहाल,सरकारी शाह खर्ची ने राज्यों की आर्थिकी की हालत पहले ही पस्त कर रखी है. दरअसल, जिस भी नागरिक सुविधा को मुफ्त किया जाता है, उस विभाग का तो भट्टा बैठ जाता है.फिर उसकी आर्थिक स्थिति कभी नहीं संभल पाती. कैग की हालिया रिपोर्ट बताती है कि पंजाब में एक निर्धारित यूनिट तक मुफ्त बिजली बांटे जाने से राज्य के अस्सी फीसदी घरेलू उपभोक्ता मुफ्त की बिजली इस्तेमाल कर रहे हैं.जाहिर है कि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता.मुफ्त की राजनीति के चलते इन महकमों के विस्तार व विकास पर ब्रेक लग जाता है. कैग की हालिया रिपोर्ट पंजाब की वित्तीय प्राप्तियों और खर्चे के बीच बढ़ते राजकोषीय अंतर की ओर इशारा करती है. बीते वित्तीय वर्ष की आर्थिक बदहाली को दर्शाती कैग की रिपोर्ट बताती है कि कैसे राज्य सरकार की आय का बड़ा हिस्सा पुराने कर्ज चुकाने में चला जा रहा है.यह भी चिंताजनक है कि इस राज्य का राजस्व घाटा, सकल राज्य घरेलू उत्पाद के 1.99 प्रतिशत लक्ष्य के मुकाबले 3.87 प्रतिशत तक जा पहुंचा है.यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि राज्य का सार्वजनिक ऋण जीएसडीपी का 44.12 प्रतिशत हो गया है. जो स्थिति पंजाब की है दुर्भाग्य से लगभग ऐसी ही स्थिति अन्य राज्यों की भी है. पंजाब, हिमाचल और कर्नाटक जैसे राज्यों को तो अपने सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने में भी परेशानी आ रही है. जाहिर है राज्य यदि मुफ्त की रेवडिय़ों को बांटने का क्रम जारी रखते हैं तो उसकी कीमत न केवल टैक्स देने वालों को चुकानी पड़ेगी बल्कि आम लोगों के जीवन पर भी इसका प्रतिकूल असर पड़ेगा. अभी भी वक्त है कि देश और प्रदेशों के राजनेता लोकप्रियता पाने के लिये सब्सिडी की राजनीति से परहेज करें और वित्तीय अनुशासन से राज्य की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का प्रयास करें. राजनीतिक दलों को अपने घोषणापत्र में यह बात स्पष्ट करनी चाहिए कि वे जो लोकलुभावनी योजना लाने जा रहे हैं, उसके वित्तीय स्रोत क्या होंगे? कैसे व कहां से यह धन जुटाया जाएगा? साथ ही जनता को भी सोचना चाहिए कि मुफ्त के लालच में दिया गया वोट कालांतर में उनके हितों पर भारी पड़ेगा. उन्हें सोचना होगा कि कभी-कभी मुफ्त बहुत महंगा पड़ता है. हमें अपने छोटे स्वार्थों के लिये राज्य के बड़े हितों से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए. दरअसल,इस संबंध में कानून बनना चाहिए कि जो भी पार्टी मुफ्त की योजनाओं का ऐलान करती है वह इन योजनाओं को पूरा करने के लिए वित्तीय स्रोत कहा से लाएगी इसका भी उल्लेख अनिवार्य रूप से अपने घोषणा पत्र में करें.
बजट का मौसम और सरकारों की आर्थिक स्थिति
