दशहरा और दिवाली के त्यौहार के समय से ही आम जनता महंगाई से परेशान है. ताजा आंकड़ों के अनुसार महंगाई की मार जारी है. इस तरह महंगाई का लगातार बढ़ता बेहद चिंता जनक है. इस बारे में केंद्र और राज्य सरकारों को ठोस कदम उठाने चाहिए. हाल में जारी आंकड़ों के अनुसार 14 महीने बाद 6.21 फीसदी पर पहुंच चुकी है. जबकि आरबीआई की महंगाई का दायरा 6 फीसदी है. भारतीय रिजर्व बैंक की कोशिश रहती है कि महंगाई दर 6 फीसदी के नीचे ही बना रहे, लेकिन ताजा आंकड़े ने ये सीमा पार कर दी है. भारत की खुदरा महंगाई दर अक्टूबर में बढक़र 6.21 $फीसदी वार्षिक हो गई, जो पिछले महीने 5.49 $फीसदी थी. ऐसा माना जा रहा है कि त्?यौहारी सीजन में हाई फूड प्राइस के कारण महंगाई दर में इजाफा हुआ है. अगस्त 2023 के बाद यह पहली बार था जब महंगाई भारतीय रिजर्व बैंक की 6 $फीसदी की सहनीय सीमा को पार कर गई. सितंबर में मुद्रास्फीति जुलाई के बाद पहली बार आरबीआई के मध्यम अवधि के लक्ष्य 4 $फीसदी को पार कर गई, जो 5.49 $फीसदी तक पहुंच गई थी. यानी कि महंगाई में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है, जो आम लोगों की जेब पर असर डाल रहा है.
सरकार द्वारा खाद्य पदार्थों विशेष कर सब्जि़यों के दामों और एमआरपी पर कोई ठोस नियंत्रण न होने के कारण गरीबों की हालत दयनीय होती जा रही है. ऐसा लगता है जैसे फल एवं सब्जियों के विक्रेताओं में नियम-कायदे और कानून का कोई खौफ नहीं है और वे मनमाने दामों पर सब्जियां और फल बेचकर मोटा मुनाफा कमाने में जुटे हुए हैं. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि रिटेल बाजार में खाद्य पदार्थों और सब्जियों के दाम चाहे कितने भी क्यों न बढ़ जाएं, किसानों को इसका फायदा कभी भी नहीं मिलता है.इसके विपरीत जमाखोरों, सटोरियों द्वारा जमकर खाद्य वस्तुओं की जमाखोरी की जाती है और बाजार में वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा कर महंगाई को बढ़ाकर चोखा मुनाफा कमाया जाता है.बढ़ती महंगाई की सबसे ज्यादा मार गरीब एवं मध्यम वर्ग को झेलनी पड़ती है. जाहिर है आम आदमी तक खाद्य सामग्री पहुंचने से पहले दलालों, बिचौलियों और आढ़तियों की जेबें गर्म हो चुकी होती हैं. जबकि किसानों को कभी भी उनके उत्पादों के सही दाम नहीं मिलते हैं.ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार को यह पता ही नहीं है कि बाजारों में सब्जियों के दामों और अन्य खाद्य वस्तुओं का क्या हाल है? आज से 30-35 वर्ष पूर्व जब कभी भी महंगाई का जिन्न अपना सिर उठाता था तो विपक्षी दलों द्वारा जरूर धरना-प्रदर्शन और विरोध प्रदर्शन की खबरें देखने-सुनने को मिलती थीं.लेकिन अब जैसे राजनीतिक दलों को आम जनता को होने वाली परेशानियों से कोई लेना-देना ही नहीं है. आर्थिक विशेषज्ञ यह भी सवाल उठाते हैं कि जब देश में जीवनोपयोगी वस्तुओं की बहुलता है तो फिर मूल्यवृद्धि क्यों ? यह भी प्रश्न मन में उठता है कि अच्छे मानसून और बेहतर पैदावार के बावजूद खाद्य वस्तुओं का कृत्रिम अभाव कौन पैदा कर रहा है, क्यों केंद्र और राज्य सरकारें इन पर लगाम नहीं लगा पा रही हैं? लोकतंत्र में राजनीतिक दलों को भी तो अंतत: जनता जनार्दन की कृपा से ही सरकारें बनाने का सुफल मिलता है, तो फिर क्यों वे आम जनता के हितों को नजरअंदाज करते हैं? सरकार को चाहिए कि वह आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 और कालाबाजारी निवारण एवं आवश्यक वस्तु आपूर्ति रखरखाव अधिनियम 1980 के प्रावधानों को सख्ती से लागू करे. इसके अलावा भी केंद्र और राज्य सरकारों को महंगाई काबू में करने के लिए व्यापक कदम उठाने चाहिए. इस समय केंद्र सरकार के कर्ताधर्ता झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में व्यस्त हैं इसलिए शायद उन्हें आम जनता की परेशानियों को दूर करने के लिए समय नहीं मिल रहा है. ऐसा लगता है 23 नवंबर (विधानसभा चुनाव परिणामों) के बाद सरकार का ध्यान आम जनता की परेशानियों की तरफ जाएगा. तब तक आम जनता महंगाई के लिए झेलने के लिए विवश है !