एक देश एक कानून: लागू करने में जल्दबाजी न हो

देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित उच्च स्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है. 18,626 पन्नों की इस रिपोर्ट पर अब राष्ट्रपति फैसला करेंगी. इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा. समिति ने देश में एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान के अंतिम पांच अनुच्छेदों में संशोधन की सिफारिश की है. गत सितंबर में गठित समिति को मौजूदा संवैधानिक ढांचे को ध्यान में रखते हुए लोकसभा, राज्य विधानसभा, पालिकाओं और पंचायतों में एक साथ चुनाव कराने की जांच करने और सिफारिश करने का काम सौंपा गया था.

पूर्व राष्ट्रपति राम कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति में गृह मंत्री अमित शाह, राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद, वित्त आयोग के पूर्व अध्यक्ष एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप और वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे शामिल हैं. लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी को भी समिति का सदस्य बनाया गया था, लेकिन उन्होंने इन्कार कर दिया. कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल समिति के विशेष आमंत्रित सदस्य हैं.भाजपा और उसके मित्र दल ‘एक देश, एक चुनाव’ के विचार के पक्षधर हैं. एक साथ चुनाव कराने में उन्हें वे सभी लाभ नजर आते हैं, जो इसके पैरोकार गिनाते रहे हैं. मसलन, चुनाव खर्च में भारी कमी आएगी, आचार संहिता के चलते सरकार की निर्णय प्रक्रिया और प्रशासनिक कामकाज प्रभावित होने से बचा जा सकेगा. सबसे बड़ी बात यह कि राजनीतिक दल भी हमेशा चुनावी दबाव में रहने से मुक्त हो जाएंगे. दूसरी ओर भाजपा विरोधी दलों को इसमें संघवाद और राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण तथा राष्ट्रीय मुद्दों से विधानसभा और स्थानीय चुनावों को भी प्रभावित कर क्षेत्रीय दलों को नुकसान की सुनियोजित साजिश दिखती है.उन्होंने इस विचार का न सिर्फ विरोध किया है, बल्कि अधिनायकवादी सोच करार देते हुए आलोचना भी की है.

इस बीच विधि आयोग भी इस मुद्दे पर संविधान संशोधन की सिफारिश करने की तैयारी में है. कहा यही जा रहा है कि विधि आयोग भी अगले पांच साल में तीन चरणों में विधानसभाओं का कार्यकाल एक साथ करने की सिफारिश कर सकता है. ताकि एक साथ चुनाव की कवायद मई- जून 2029 में लोकसभा चुनावों के साथ हो सके.दरअसल,‘एक देश, एक चुनाव’ कोई अनूठा विचार नहीं है. 1951 से लेकर 1967 तक देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ ही होते रहे. उसके बाद ही यह प्रक्रिया भंग हुई. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लोकसभा चुनाव निर्धारित समय से एक साल पहले कराने के फैसले ने भी इसमें बड़ी भूमिका निभाई.कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए गैर कांग्रेसी दलों में 1963 से ही शुरू हुई तालमेल की कवायद का परिणाम यह निकला कि 1967 में कुछ राज्यों में संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं. राजनीतिक जोड़तोड़ के चलते वे अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकीं.ऐसे में उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब, पश्चिम बंगाल एवं नगालैंड में मध्यावधि चुनाव अवश्यंभावी हो गए. इसके बाद 90 के दशक में भी मिली जुली सरकारों का दौर आया. इसके चलते 1996 ,1998 और 99 यानी मात्र 4 वर्ष की अवधि में तीन लोकसभा चुनाव हो गए. जाहिर है इससे हुआ यह कि प्रतिवर्ष देश में किसी ना किसी राज्य में चुनाव होने लगे और शेड्यूल बिगड़ गया.बहरहाल,इसमें दो राय नहीं कि एक साथ चुनाव से खर्च काफी घट जाएगा. आचार संहिता के दौर में प्रशासनिक शिथिलता भी देर तक नहीं रहेगी.लेकिन,इस व्यवस्था के खतरे भी हैं.विधानसभा चुनाव अकसर राज्य के और स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं.एक साथ चुनाव कराने पर क्या स्थानीय मुद्दे गौण नहीं हो जाएंगे? क्या जन आकांक्षाओं की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति बाधित नहीं होगी? बड़ी संख्या में संसाधनों की दरकार भी होगी. सवाल यह भी बड़ा है कि कार्यकाल के बीच ही सरकारों के बहुमत खो देने पर जोड़तोड़ से वैकल्पिक सरकार बनेगी या फिर राष्ट्रपति शासन के जरिए लोकतंत्र को स्थगित रखा जाएगा? इन सवालों का जवाब हर तरह की विभाजक रेखाओं से ऊपर उठ कर देना चाहिए. इसी पर लोकतंत्र और देश का भविष्य निर्भर करेगा. कुल मिलाकर सैद्धांतिक रूप से भले ही एक देश एक कानून अच्छा प्रतीत हो लेकिन इसके व्यावहारिक पहलुओं पर अधिक गंभीरता और व्यापकता के साथ विचार करना चाहिए.

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