बदजुबान मंत्री को इतना संरक्षण क्यों ?

चाणक्य नीति में कहा गया है…कार्याकार्यतत्त्वार्थदर्शिनो मंत्रिणा: अर्थात कार्य-अकार्य के तत्वदर्शी ही मंत्री होने चाहिए। चाणक्य का कहना था कि किसी भी राज्य द्वारा करने अथवा न करने योग्य कार्यों के मध्य जो व्यक्ति पूरी तरह से लाभ-हानि का अंदाजा लगा लेता है अथवा जो व्यक्ति अपनी योग्यता से इस बात का पूर्वानुमान लगा लेता है कि राजा को यह कार्य करना चाहिए या नहीं करना चाहिए, वही व्यक्ति राजा का मंत्री बनने योग्य होता है। लेकिन मप्र सरकार के कैबिनेट मंत्री विजय शाह इसके ठीक उलट निकले। उन्होंने अपने आचरण और मुखारबिंद से यह साबित कर दिया कि वे न तो कार्य-अकार्य के तत्वदर्शी हैं और न राज्य के हित में लाभ-हानि का अंदाजा लगाने का सामर्थ्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे जिस सामंती परिवेश में पले बढ़े, हठधर्मिता और दूसरों को हेय समझने के उन संस्कारों को लोकतांत्रिक व्यवस्था अंगीकार करने पर भी छोड़ नहीं पाए। कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर उनकी टिप्पणी पहला वाकया नहीं है, इससे पहले भी प्रदेश की जनता ने उनकी बदजुबानी की नजीरें देखी हैं। स्कूली छात्र छात्राओं से लेकर एक पूर्व मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी के बारे में भी वे अमर्यादित टिप्पणी कर चुके हैं। उन्हें माफ किया जाता रहा लेकिन इस बार वे बुरे फंस गए हैं।

कह सकते हैं कि उनके आपत्ति पूर्ण वक्तव्य ने देश की सेना और नारी शक्ति के सम्मान और मुल्क की गंगा जमुनी तहजीब पर चोट पहुंचाने की कोशिश की है। यही वजह है कि हाईकोर्ट को कहना पड़ा कि मंत्री का बयान गटर छाप है और यह देश की सेना का अपमान है। बहरहाल, कोर्ट की चेतावनी के बाद उन पर केस तो दर्ज हो गया है लेकिन मंत्री पद से इस्तीफे पर अभी तक सहमति नहीं बनी है। वे इस्तीफा देने के लिए तैयार नहीं हैं। यह मामला न सिर्फ मप्र बल्कि समूचे देश में गरमाया है। उधर कांग्रेस हमलावर रूख अपनाए है। देश भर में मंत्री महोदय के पुतले फूंके जा रहे हैं लेकिन क्षमायाचना से काम न चलने पर अब वे पार्टी और सरकार को ब्लैकमेल करने के दूसरे रास्ते अपना रहे हैं। अपनी आदिवासी नेता की छवि को भुनाने के लिए वे समर्थकों को लामबंद कर रहे हैं। उनके द्वारा आदिवासी सेना बनाए जाने की भी अटकलें हैं।

विजय शाह के मामले में कई सवाल खड़े होते हैं जिनका जवाब सरकार, प्रशासन और राजनीतिक दलों को देना ही होगा। हरसूद क्षेत्र की जनता भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती, जो एक या दो नहीं बल्कि आठ बार चुनकर इस बदजुबान मंत्री को विधानसभा में पहुंचा कर अपना नुमाइंदा बनाती रही। सरकार और प्रशासन को इस सवाल का जवाब देना होगा कि हमारी धर्मनिरपेक्ष सेना को धर्म की दीवार में बांटने की नापाक हरकत करने वाले इस मंत्री को जहरीली जुबान खुलते ही तत्काल गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया! ऐसी नौबत क्यों आई कि उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए कोर्ट को हुक्म देना पड़ा। एफआईआर भी दर्ज की गई तो कमजोर धाराओं में, हाईकोर्ट को दोबारा फटकार लगाना पड़ी। राजनीतिक दल भी अपने दायित्व से बच नहीं सकते हैं। आखिर बार बार गलती करने वाले नेता को बार बार टिकट क्यों दिया जाता रहा और मंत्री भी बनाया जाता रहा। पूर्व मुख्यमंत्री की धर्मपत्नी के बारे में द्विअर्थी टिप्पणी किए जाने पर उन्हें मंत्रिमंडल से रुखसत कर दिया गया था लेकिन चार महीने बाद ही फिर से मंत्री बना दिया गया। सरकार के मुखिया के पास उन्हें मंत्रीमंडल से रवानगी देने और पार्टी नेतृत्व के समक्ष उन्हें पार्टी से बाहर करने के विकल्प खुले हुए हैं लेकिन पता चला है कि इन विकल्पों को आजमाने के बजाए अभी भी सत्ता और संगठन की वीथिकाओं में आठ नौ आदिवासी बाहुल्य सीटों पर होने वाले नफा नुकसान का गुणा भाग लगाया जा रहा है।

ऐसे वक्त जब जातिगत जनगणना पर प्रतिपक्ष और सत्तापक्ष, दोनों ही राजी हैं, इस सूरत में कोई भी फैसला लेने से पहले जाति और समाज के वोटबैंक का हिसाब लगाना अजूबी बात नहीं है लेकिन राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखना चाहिए। हमें नहीं लगता कि आदिवासी तबका अब भी विजय शाह का साथ देगा।

 

 

 

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