होली पर बांटे जाने वाले इन मीठे आभूषणों को सभी बहुत पसंद करते हैं. लोगों के अनुसार ये आभूषण बांटे ही इसलिए जाते हैं, ताकि पूरे सालभर रिश्तों में मिठास बनी रहे. कड़वाहट की कोई गुंजाईश ही न बचे. परंपरा अनुसार ग्रामीण इलाकों में होलिका दहन के लिए अपने घरों से निकले बच्चे लकड़ी से बनी तलवारों को कंधे पर रखकर जाते हैं. होलिका दहन में इन तलवारों की नोंक से अंगारों को खंगालकर इन्हें आधा जलाया जाता है. फिर आधी जली इन तलवारों को वापस घरों में लाया जाता है. ग्रामीण मानते हैं कि ऐसा करने से घर में सुख-समृद्धि आती है.
30 वर्षं से कर रहे कारोबार
सुसनेर निवासी शैलेन्द्र माली और राजेन्द्र जैन लगभग 30 वर्षों से भी अधिक समय से इन रंगबिरंगी मालाओं और आभूषणों को बनाते चले आ रहे हैं. उनके जैसे कई दुकानदार होली के पंद्रह दिन पहले से ही इनको बनाना शुरू कर देते हैं. शक्कर की चासनी में खाने वाले रंगों को डालकर इन्हें बनाया जाता है. खास बात यह है कि महंगाई और आधुनिकता चकाचौंध के बावजूद इन मीठे आभूषणों की मांग आज भी बनी हुई है.
हिन्दू-मुस्लिम सभी करते है मीठे गहनों का कारोबार
जात-पात से परे रंगों के इस त्यौहार पर हिन्दू ही नहीं बल्कि मुस्लिम भी इन मीठे गहनों का व्यापार करते हैं. मालवा की परंपरा में शामिल शक्कर से बनी इन मीठी मालाओं और गहनों का हजारों क्विंटल में व्यापार होता है. लगभग 70 से 100 रुपए किलो तक इनको बेचा जाता है. ग्रामीण क्षेत्रो की महिलाएं और बच्चे जमकर इनकी खरीददारी करते हैं. वर्षों से इस पुश्तैनी व्यापार को कर रहे हुजेम अली बोहरा के अनुसार होली पर लगभग आठ से दस दिनों तक इन आभूषणों का अच्छा कारोबार हो जाता है. बाजार में जगह-जगह फुटपाथों पर इनकी कई दुकानें लगने के बाद भी आज भी इन आभूषणो का व्यापार कम नहीं हुआ है