फागुन की मस्ती हुई फीकी, आधुनिकता की चकाचौंध में खो गई चंग-ढप की गूंज

 

नवभारत न्यूज

उज्जैन। फाल्गुन माह का आगमन होते ही होली का उत्साह उमडऩे लगता था। पहले गांवों की गलियों में चंग-ढप की मधुर थाप गूंजती थी और मस्तानों की टोलियां नृत्य-गान में मग्न रहती थी। लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध ने इस लोक परंपरा को धीरे-धीरे विलुप्त कर दिया।

युवा पीढ़ी इन पारंपरिक वाद्य यंत्रों से दूर होती जा रही है। जहां पहले गांवों में होली की मस्ती पूरे महीने रहती थी, वहीं अब यह महज एक दिन की औपचारिकता बनकर रह गई है। पहले फाल्गुन माह की शुरुआत से ही हर रात गांवों में चंग-ढप की थाप पर फाग गीतों की धुन सुनाई देती थी। टोली बनाकर युवा नाचते-गाते थे और पूरा गांव इस उल्लास में डूब जाता था। लेकिन अब टीवी, मोबाइल और पाश्चात्य संस्कृति की ओर बढ़ते कदमों ने इस परंपरा को धुमिल कर दिया। अब न वैसी टोलियां बची है और न ही पहले जैसा उत्साह। चंग-ढप की धुन और फाग गीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। अगर इसे संरक्षित नहीं किया गया तो आने वाली पीढ़ी इस अनमोल विरासत से अनभिज्ञ रह जाएगी। आधुनिकता के साथ-साथ लोक परंपराओं को जीवंत रखना भी हमारी जिम्मेदारी है, ताकि आने वाली पीढिय़ां भी इस उत्साह और उमंग को महसूस कर सकें।

 

धुलेंडी पर मचता था धमाल, त्योहारों तक सिमटी परंपरा

धुलेंडी का दिन कभी गांवों में सबसे खास हुआ करता था। सुबह होते ही युवा रंग-गुलाल से सराबोर होकर चंग-ढप की थाप पर नाचते-गाते थे। जगह-जगह गैर निकलती थीं और घर-घर जाकर लोग एक-दूसरे को रंग लगाते थे। यह परंपरा अब बीते दिनों की बात हो गई है। पहले जहां फाल्गुन की मस्ती पूरे महीने चलती थी, अब यह सिर्फ होली के दिन तक सीमित रह गई है। घर-घर जाकर गीत गाने और गैर निकालने की प्रथा लगभग खत्म हो चुकी है। अब लोग होली को केवल औपचारिक रूप से मनाने लगे है, जिसमें लोक परंपरा का उत्साह गायब हो गया है।

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