चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है पर्यावरण

दिल्ली विधानसभा चुनाव में रेवडिय़ों की खूब चर्चा है. आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और भाजपा तीनों ने लाभार्थी योजनाओं की झड़ी लगा दी है. आम आदमी पार्टी ने 2013 के दिल्ली चुनाव से ही देश में रेवड़ी कल्चर की शुरुआत की थी. दुर्भाग्य से दिल्ली प्रदूषण की भी राजधानी है. यानी यहां जितना वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण है उतना कहीं नहीं है, लेकिन आश्चर्य की बात है कि दिल्ली के चुनाव में पर्यावरण या प्रदूषण मुद्दा नहीं है.यह विडंबना ही है कि प्रदूषण के मुद्दे पर आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति तो लगातार होती रही है लेकिन पराली व प्रदूषण बढ़ाने वाले अन्य कारकों पर रोक लगाने के लिये कोई ईमानदार प्रयास होते नजर नहीं आते. सर्वोच्च अदालत ने बार-बार कहा है कि पराली जलाने की घटनाओं पर रोक लगाने के लिये सतत निगरानी की जानी चाहिए. इसके विपरीत दिल्ली सरकार, हरियाणा व पंजाब में पराली का मुद्दा राजनीति के रंग में रंगता रहा है. दरअसल, ठंड का मौसम आते ही भौगोलिक कारणों से प्रदूषण विकराल रूप लेने लगता है.निस्संदेह, यह तंत्र की काहिली का ही नतीजा है, जिसके चलते दिल्ली दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित राजधानी का दर्जा हासिल कर लेती है. दरअसल, प्रदूषण के एक घटक पराली जलाने की घटनाओं में वृद्धि की वजह भी वोटों की राजनीति ही है. सरकारें पराली जलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने से बचती रही हैं.उन्हें अपने वोट बैंक के खिसकने की चिंता सताती रहती है. पिछले दिनों यानी दिल्ली चुनाव की घोषणा के पूर्व वायु गुणवत्ता आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि पिछले साल इन दिनों के मुकाबले में दस गुना अधिक पराली जलाने की घटनाएं हुई हैं. वहीं बीते वर्ष इसी अवधि के मुकाबले इस वर्ष हरियाणा में पांच गुना अधिक पराली जलाने की घटनाएं दर्ज की गई.सवाल यह है कि पराली जलाने की घटनाओं पर अंकुश क्यों नहीं लगाया जा रहा है? खैर अब तो चुनाव प्रारंभ हो गए हैं, इसलिए इस मामले में जो कुछ करना है नई सरकार को करना है लेकिन आश्चर्य की बात है कि मतदाताओं और राजनीतिक दलों के बीच पर्यावरण मुद्दा ही नहीं है. चुनावी भाषणों में भी नेता पर्यावरण के बारे में कुछ नहीं बोल रहे हैं.जबकि दिल्ली में यह एक बड़ा मुद्दा होना चाहिए.भाजपा से यह उम्मीद थी कि वह इसे मुद्दा बनाएगी क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया के हर मंच पर पर्यावरण का मुद्दा मजबूती से उठाया है. यही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र की सरकार ग्रीन एनर्जी के लिए अनेक बड़े कदम उठा रही है.बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण के मामले में संकट 20 जनवरी के बाद और बढऩे वाला है क्योंकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पास भी पर्यावरण को लेकर कोई योजना नहीं है. ट्रंप के बारे में कहा जाता है कि उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से आर्थिक और व्यापारिक रहता है. यानी डोनाल्ड ट्रंप ऐसे राष्ट्रपति साबित होंगे जो आर्थिक उन्नति के लिए अमेरिका के उद्योगपतियों और व्यापारियों के दबाव में रहेंगे. यह जग जाहिर है कि पर्यावरण संतुलन के लिए की जा रही कोशिशें और पाबंदियां उद्योगपतियों को रास नहीं आती. दरअसल, अमेरिका जैसे धनी देशों के रवैये के चलते विकासशील देश खुद को छला महसूस करते हैं. कुल मिलाकर अमीर देश पर्यावरण को लेकर चिंता जताने का शोर तो करते हैं लेकिन कम करने के उपाय कुछ नहीं करते. अपनी पिछली पारी में पर्यावरण संकट पर बेरुखी दिखाने वाले नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को लेकर भी दुनिया के मुल्क असमंजस में हैं. कयास लगाए जा रहे हैं कि दुनिया की महाशक्ति अमेरिका क्लाइमेट चेंज प्रभाव को रोकने के लिये धन उपलब्ध कराने में ना-नुकर कर सकता है. जो भी हो पर्यावरण के मामले में अभी भी आम जनता में जागरूकता नहीं है. अन्यथा दिल्ली के चुनाव में तो कम से कम पर्यावरण और प्रदूषण एक बड़ा मुद्दा होता.

 

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