बसपा के मैदान में उतरने के बाद बदलेंगे चुनावी समीकरण
भाजपा के पास 20 साल का रिपोर्ट कार्ड तो कांग्रेस के पास नाकामियों का आरोपपत्र
हरीश दुबे
ग्वालियर: ग्वालियर में भाजपा ने महीना भर से भी पहले अपने प्रत्याशी का ऐलान कर दिया था लेकिन कांग्रेस में टिकट को लेकर पेंच ऐसा फंसा कि फैसला लेने में लंबा वक्त लग गया। बहरहाल, ग्वालियर में अब चुनावी मैदान में होने वाले मुकाबले की तस्वीर साफ है। बसपा ने अभी अपने प्रत्याशी के नाम का ऐलान नहीं किया है, लेकिन पिछले चुनाव नतीजों के आधार पर फिलवक्त यही माना जा रहा है कि 24 के समर में मुख्य मुकाबला भाजपा के भारत सिंह कुशवाह और कांग्रेस के प्रवीण पाठक के दरम्यान ही होगा। हालांकि ग्वालियर चंबल में नामांकन दाखिली का सिलसिला पांच रोज बाद ही शुरू होगा लेकिन दोनों प्रत्याशी चुनावी फिजां का रुख अपनी अपनी तरफ मोडऩे के लिए पूरी ताकत से मैदान में कूद गए हैं।
इस बात में शक नहीं कि ग्वालियर हिन्दू महासभा और जनसंघ के जमाने से कट्टर राष्ट्रवादी विचारधारा का गढ़ रहा है और पिछले चार दशक में भाजपा ने इस सिलसिले को और रफ्तार दी। इसके बावजूद कांग्रेस ने बीच में कई अर्से तक जनसंघ और भाजपा के विजय अभियान को रोके रखा और इसमें महत्वपूर्ण भूमिका ग्वालियर के सिंधिया परिवार की ही रही। 1962 में सिंधिया परिवार के कांग्रेस से जुडऩे के बाद ही इस पार्टी को यहां ताकत मिली, हालांकि इससे पहले 57 में दलित नेता सूरज प्रसाद भी ग्वालियर सीट से लोकसभा के लिए नुमाइंदे चुने जा चुके थे लेकिन तब भी यहां कांग्रेस की स्थिति डांवाडोल ही रही। पं. नेहरू की पहल पर 62 में राजमाता सिंधिया यहां से कांग्रेस की प्रत्याशी बनीं और जीतीं लेकिन इस पांच साल की अवधि में ही उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया और उनके जनसंघ में चले जाने के बाद यहां से जनसंघ ही जीतती रही। जनसंघ के इस विजय अभियान को 84 में माधवराव सिंधिया ने ही रोका और उनके नेतृत्व में 98 तक कांग्रेस लगातार जीतती रही, हालांकि 96 का चुनाव उन्होंने अपनी पार्टी विकास कांग्रेस के बैनर पर जीता।
24 के इस चुनाव में दोनों दलों द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दे पहले ही साफ हो चुके हैं। भाजपा प्रत्याशी भारतसिंह कुशवाह की हालांकि खुद की सुदृढ़ व्यक्तिगत छवि है और शिवराज सरकार में मंत्री रहते उन्होंने ग्रामीण अंचल में पेयजल, सडक़, बिजली, कृषि एवं उद्यानिकी आदि क्षेत्रों में काफी काम किया है लेकिन उनके चुनाव प्रबंधकों को शहरी क्षेत्र में विगत दो दशकों में भाजपा सरकार द्वारा किए गए विकासकार्यों, स्मार्ट सिटी के प्रोजेक्ट, मोदी के चेहरे और राममंदिर प्राणप्रतिष्ठा जैसे सकारात्मक मुद्दों का लाभ मिलने का भरोसा है। वहीं कांग्रेस प्रत्याशी प्रवीण पाठक शुरू से ही भाजपा के खिलाफ हमलावर रहे हैं। कांग्रेस द्वारा चुनाव मैदान में उतारे जाने के बाद उनके तेवर और तीखे हो गए हैं। वे पिछले बीस साल के भाजपा शासनकाल की नाकामियों, कमियों और भ्रष्टाचार को गिनाते हैं। वे कहते हैं कि जिस तरह वे विधायक के रूप में ग्वालियर दक्षिण क्षेत्र के लिए समर्पित रहे, उसी तरह ग्वालियर संसदीय क्षेत्र को विकास में उत्कर्ष बनाने में कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे।
ग्वालियर संसदीय क्षेत्र का भौगोलिक स्वरूप कुछ बिखरा बिखरा सा है। इस संसदीय क्षेत्र में ग्वालियर जिले की सभी छह विधानसभा सीटें तो शामिल हैं ही, शिवपुरी जिले की दो विधानसभा सीटें करैरा और पोहरी भी इसमें शुमार हैं, इस तरह ग्वालियर से चुनाव लडऩे वाले प्रत्याशी को शिवपुरी जिले के राजनीतिक समीकरण अपने पक्ष में करना होते हैं। चूंकि ग्वालियर सीट पर भाजपा प्रत्याशी करीब महीना भर से भी पहले घोषित कर दिया गया था, इस तरह चुनाव प्रचार के लिए उन्हें पूरे दो महीने मिले हैं जबकि कांग्रेस उम्मीदवार कल ही घोषित हुए हैं, गुजरे एक महीने तक कांग्रेस प्रवीण पाठक और रामसेवक सिंह के नामों पर असमंजश में ही उलझी रही। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का पूरा मार्च का महीना प्रत्याशी की घोषणा के इंतजार में ही बीता, कल प्रत्याशी घोषित होने के बाद से लेकर चुनाव प्रचार की मियाद तक की तारीखें देखें तो कांग्रेस को ग्वालियर में प्रचार के लिए पूरा एक महीना भी नहीं मिला है। कांग्रेस प्रत्याशी इसे अपने लिए बड़ी समस्या नहीं मानते लेकिन उनकी टीम के समक्ष कम वक्त में ज्यादा एरिया कवर करने की चुनौती तो है ही।
विधानसभा के नतीजों के हिसाब से अभी फिफ्टी फिफ्टी की स्थिति
राजनीतिक लिहाज से देखें तो ग्वालियर संसदीय सीट पर भाजपा और कांग्रेस के बीच फिलहाल फिफ्टी फिफ्टी की स्थिति है। संसदीय क्षेत्र में शामिल 8 विधानसभा सीटों में से 4 पर कांग्रेस और 4 पर भाजपा का कब्जा है। यह भी सच है कि इनमें से कुछ सीटों पर पार्टी के बजाए प्रत्याशी की व्यक्तिगत छवि की दम पर जीत मिली थी। फिलहाल दोनों प्रत्याशी अपने विजयपथ को सुगम बता रहे हैं लेकिन उनके चुनाव प्रबंधकों के लिए यह एक महीना खासी मेहनत वाला साबित होगा। माना जा रहा है कि बसपा उम्मीदवार के मैदान में उतरने के बाद मौजूदा चुनावी समीकरणों में अभी और बदलाव आएगा।
गैर कांग्रेस दलों से पांच बार रहे ब्राह्मण सांसद
ग्वालियर संसदीय सीट पर कांग्रेस पहले भी ब्राह्मण चेहरों को मैदान में उतारती रही है। सन 71 में प्रदेश के पूर्व खाद्य मंत्री गौतम शर्मा तो 96 में दिल्ली के पूर्व सांसद शशिभूषण वाजपेई को यहां से टिकट दिया गया था। हालांकि इन दोनों को ही पराजय का सामना करना पड़ा था। वैसे ग्वालियर सीट पर अब तक पांच बार ब्राह्मण नेताओं को सांसद बनने का मौका मिला है, ये बात अलग है कि ये सभी गैर कांग्रेस दलों से थे। 52 में हिन्दू महासभा से वीजी देशपांडे, 67 व 71 में जनसंघ के रामअवतार शर्मा व अटलबिहारी वाजपेई, 77 व 80 में जनता पार्टी के एनके शेजवलकर और 2019 में विवेक शेजवलकर यहां से सांसद रहे।
हिन्दूसभा, जनसंघ, भाजपा 11 बार तो कांग्रेस 7 बार जीती
जनसंघ, हिन्दूसभा, भाजपा के प्रत्याशियों को ग्वालियर संसदीय सीट पर अब तक 11 बार विजयश्री मिली है जबकि कांग्रेस के खाते में सिर्फ 7 बार ही जीत दर्ज हो सकी, इनमें से पांच बार कांग्रेस तभी जीत सकी जब सिंधिया परिवार इस पार्टी के टिकट पर मैदान में उतरा। एक एक बार सूरज प्रसाद और रामसेवक सिंह बाबूजी ने कांग्रेस को यह सीट दिलाई। यहां कांग्रेस और हिंदुत्ववादी दलों के बीच ही मुकाबला होता रहा है। तीसरी ताकत यानि समाजवादी और वामदल कभी मुख्य मुकाबले में नहीं आ सके। सिर्फ एक बार यानि 1996 में बसपा निकटतम प्रतिद्वंदी रही थी। इस चुनाव में बसपा ने कांग्रेस को तीसरे नम्बर पर धकेल दिया था।