सिंधु जल संधि को लेकर हाल ही में भारत सरकार ने पाकिस्तान को नोटिस भेजा है. यह एक सही कदम है. जब यह संधि हुई थी, उस समय पाकिस्तान में भारत को आश्वस्त किया था कि वो पड़ोसी मित्र की तरह साथ रहेंगे, लेकिन 1965, 1971 के युद्ध, 1999 की करगिल जंग और असंख्य आतंकी हमले, जिनमें संसद पर हमला और मुंबई का 26 /11 हमला यह बताने के लिए पर्याप्त है कि पाकिस्तान ने अपना वादा नहीं निभाया है. इसको देखते हुए संधि की समीक्षा की जाना जरूरी है.
दरअसल,दोनों देशों के बीच ‘सिंधु जल संधि’ 1960 में हुई थी, जिसकी मध्यस्थता विश्व बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष ने की थी. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के तानाशाह राष्ट्रपति अयूब खान ने संधि के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे.समझौते के अनुसार झेलम, चिनाब, सिंधु नदियों का पानी पाकिस्तान में बहने दिया जाएगा. वह उस पानी का साधिकार उपयोग भी कर सकेगा। सतलुज, ब्यास, रावी नदियों पर भारत का अधिकार होगा. भारत सिंधु नदी के 20 प्रतिशत पानी का ही उपयोग कर सकता है, जबकि 80 प्रतिशत पानी पर अधिकार पाकिस्तान का होगा.
बीते 6 दशकों से अधिक समय से यह संधि निरंतर लागू है, जबकि इस दौरान कई युद्ध भी हुए हैं. अब भारत सरकार ने पाकिस्तान की हुकूमत को नोटिस भेजा है कि ‘सिंधु जल संधि’ की सम्यक समीक्षा और परिवर्तन की जरूरत है.यह कड़ा संदेश बीते साल इस्लामाबाद को भेजे गए नोटिस का फॉलोअप है. सिर्फ इसी से पाकिस्तान कराहने और चिल्लाने लगा है और अंतरराष्ट्रीय मंच पर मुद्दा उठाने की चेतावनी देने लगा है.फिलहाल भारत पाकिस्तान से पानी छीनने की मुद्रा में नहीं है, इस संधि के अनुसार पाकिस्तान तो अधिकतम पानी का इस्तेमाल कर रहा है, लेकिन भारत अपने हिस्से का 20 प्रतिशत पानी भी उपयोग नहीं कर रहा है.दरअसल पाकिस्तान भारत की पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण में रोड़े अटकाता रहा है. मामला अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अदालत तक भी गया है. झेलम नदी पर किशनगंगा पनबिजली प्रोजेक्ट की अनुमति अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अदालत ने ही भारत को दी थी और चिनाब नदी पर भी पनबिजली का एक प्रोजेक्ट निर्माणाधीन है, लेकिन पाकिस्तान विरोध करता रहा है.जल-संधि के विवादों के निपटान के लिए विश्व बैंक द्वारा नियुक्त तटस्थ विशेषज्ञ की मध्यस्थता तक की नौबत आ सकती है.हालात ऐसे हैं कि यदि भारत कुछ समय के लिए झेलम, चिनाब नदियों के जल-प्रवाह को रोक दे, तो पाकिस्तान त्राहि-त्राहि करने लगेगा.प्यासा मरने और कृषि-संकट के हालात पैदा हो जाएंगे.जब पाकपरस्त आतंकियों ने उरी में आतंकी हमला किया था, तो भारत के प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि खून और पानी साथ-साथ नहीं बह सकते. यह स्थिति आज भी है, क्योंकि भारत तब तक पाकिस्तान के साथ बातचीत करने को तैयार नहीं है, जब तक सीमा पार आतंकवाद को रोका नहीं जाता. संवाद और आतंकवाद भी साथ-साथ नहीं चल सकते.ऐसे गतिरोध के मद्देनजर संधि कैसे संभव है? भारत की पर्यावरणीय और आर्थिक चिंताएं और सरोकार भी अंतरराष्ट्रीय हैं. भारत जलवायु-परिवर्तन के वैश्विक समझौतों से भी बंधा है. बीते साल जुलाई में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता अदालत ने हस्तक्षेप किया और कहा कि वो किशनगंगा और रतले पनबिजली परियोजनाओं पर निर्णय लेने में सक्षम है.भारत असहमत रहा, क्योंकि वह अंतरराष्ट्रीय अदालत के बजाय तटस्थ विशेषज्ञ की मध्यस्थता के पक्ष में था. भारत नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में भी अपनी भूमिका निभाना चाहता है. 850 मेगावाट की रतले पनबिजली परियोजना उसकी इसी भूमिका का हिस्सा है. रतले से जो रोजगार सृजन होगा, उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लिहाजा पाकिस्तान को जो नोटिस भेजा गया है, वह स्वच्छ एवं पर्यावरणीय ऊर्जा को विकसित करने के संदर्भ में भी है, ताकि उत्सर्जन के लक्ष्य हासिल किए जा सकें. सिंधु जल संधि का अगला कदम ऊर्जा को साझा करने का समझौता हो सकता है, लेकिन दोनों देशों में लगभग दुश्मनी ठनी है, तो ऐसे समझौते और संधियां कैसे संभव हैं? जहिर है पाकिस्तान के रवैए को देखते हुए संधि की समीक्षा जरूरी है. इसलिए भारत का नोटिस भेजना एक सही कदम है.