सुप्रीम कोर्ट ने कोलकाता की डॉक्टर बेटी के साथ हुए दुष्कर्म और मुंबई हाई कोर्ट ने बदलापुर में दो बच्चियों के साथ हुई हरकत के मामले में क्रमश: पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र पुलिस की कार्यप्रणाली पर अनेक सवाल उठाए हैं. दरअसल,जब भी कोई वारदात होती है तो यह देखने में आता है कि पुलिस या तो देर से पहुंचती है या एफआईआर लिखने में आनाकानी करती है. पता नहीं क्यों लेकिन अंग्रेजों के जमाने से पुलिस की यही मानसिकता है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को लिखने में आनाकानी करो. थाने में जब भी कोई फरियादी रिपोर्ट लेकर पहुंचता है तो पुलिस वाले इस तरह से उससे सवाल करते हैं कि जैसे अपराध उसी ने किया हो. थाने का समूचा तंत्र इस बात में लग जाता है कि किसी भी हालत में एफआईआर दर्ज न हो पाए. स्वाधीनता के 77 वर्ष बाद भी पुलिस का यह रवैया बदला नहीं है. कानून और व्यवस्था तथा पुलिस भले ही राज्यों का विषय हो लेकिन इस मामले में पूरे देश में एकरूपता है कि पुलिस का तंत्र एक ही ढर्रे पर काम करता है. पुलिस चाहे केरल की हो या उत्तराखंड की, उसका रवैया अपराधों के प्रति एक जैसा रहता है. जब तक कोई बड़ा आंदोलन ना हो, जब तक कोर्ट फटकार ना लगाए या वर्दी जाने का खतरा ना हो तब तक मजाल है कि पुलिस एक्शन में आए ! जाहिर है देश में व्यापक पुलिस सुधारों की जरूरत है. खासकर थाने का निचला स्टाफ अमूमन भ्रष्ट ही रहता है. अब समय आ गया है जब व्यापक तौर पर पुलिस सिस्टम या पुलिसिया तौर तरीकों में बदलाव लाया जाए. इसके लिए महान पुलिस अधिकारी रुस्तम जी के नेतृत्व में बनी सुधार कमेटी की रिपोर्ट को अमल में लाया जा सकता है.दरअसल,आजादी के इतने वर्षों बाद भी पुलिस की छवि आम जनता में वैसी की वैसी है. आम आदमी पुलिस थाने में जाने से भी डरता है. क्या यह किसी जन कल्याणकारी राज्य के लिए सही है ? सुशासन की बहुत चर्चा होती है लेकिन थाने में जाने पर ही मालूम पड़ता है कि सुशासन की असलियत क्या है.दरअसल,आज आम आदमी को अपराधी से जितना डर लगता है, उतना ही डर पुलिस से भी है. हालांकि इस मामले में पुलिस विभाग भी उपेक्षा का शिकार है. पुलिस बल और पुलिस थानों की संख्या बहुत कम है. पुलिस के पास आधुनिक हथियार और उसको चलाने का प्रशिक्षण भी नहीं है. बहुत से पुलिसकर्मी अपने आला अधिकारियों के यहां घरेलू नौकर की तरह तैनात किए जाते हैं. पुलिस को नेताओं की सुरक्षा से भी कम हो फुर्सत मिल पाती है. यही नहीं महीनों तक पुलिस वाले छुट्टी के लिए तरस जाते हैं. इसमें कोई शक नहीं कि पुलिसकर्मी बेहद खराब परिस्थिति में काम करते हैं. इस वजह से उनकी कुंठा और परेशानी बढ़ जाती है. जाहिर है पुलिस विभाग की समस्याओं और उनकी सेवा शर्तों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है.दरअसल, हमारी पुलिस व्यवस्था में सुधार कर उसे बदलते वक्त के अनुरूप बनाना होगा.वस्तुत: राष्ट्रीय पुलिस आयोग की स्थापना तो वर्ष 1977 में कर दी गई थी, लेकिन पुलिस सुधारों की चर्चा को जीवंत रखने और शीर्ष न्यायपालिका में ले जाने का श्रेय प्रकाश सिंह को जाता है.वर्ष 1996 में पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने 1977-81 के पुलिस आयोग की भुला दी गई सुधार-सिफारिशों को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था.प्रकाश सिंह उत्तर प्रदेश और असम जैसे कानून-व्यवस्था के लिहाज़ से मुश्किल माने जाने वाले राज्यों में पुलिस महकमे के मुखिया के साथ-साथ सीमा सुरक्षा बल के प्रमुख भी थे.
प्रकाश सिंह की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों के अनुरूप, पुलिस को राजनीति और नौकरशाही के बेजा दबावों से मुक्त करने और उसकी कामकाजी स्वायत्तता को बाह्य निगरानी के अपेक्षाकृत व्यापक माध्यमों से संतुलित करने पर बल दिया. हालांकि ढाई दशकों के बाद भी सुप्रीम कोर्ट की इन सिफारिशों पर अमल नहीं किया जा सका है. जब तक पुलिस तंत्र में सुधार नहीं होगा, पुलिस को राजनीतिक दबाव से मुक्त नहीं किया जाएगा, जब तक पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होगी, तब तक यह सब चलता रहेगा !