100 वर्षो से अधिक पुरानी परंपरा को आज भी ग्रामीण अंचल में निभाया जा रहा है
सुसनेर, 23 मार्च. मालवा क्षेत्र में होली पर एक अनुठी परंपरा प्रचलित है. 100 सालों से भी अधिक पुरानी इस परम्परा में शक्कर से बनी रंगबिरंगी माला और आभुषणों को पहनकर बच्चे होलिका दहन करने जाते हैं, होलिका दहन के समय इनकी पुजा की जाती है, बाद में इन गहनो और मालाओं को प्रसादी के रूप में बच्चों और बडो में बांट दिया जाता है. होली पर बांटे जाने वाले इन मीठे आभूषणों को सभी बहुत पसंद करते हैं.
लोगों के अनुसार ये आभूषण बांटे ही इसलिए जाते है ताकि पूरे सालभर रिश्तों में मिठास बनी रहे. कडवाहट की कोई गुंजाईश ही न बचे. परंपरा अनुसार ग्रामीण इलाको में होलिका दहन के लिए अपने घरो से निकले बच्चे लकडी से बनी तलवारों को कंधे पर रखकर जाते हंै. होलिका दहन में इन तलवारों की नोंक से अंगारो को खंगालकर इन्हें आधा जलाया जाता है, फिर आधी जली इन तलवारों को वापस घरो में लाया जाता है, ग्रामीण मानते है कि ऐसा करने से घर में सुख समृद्धि आती है.
हिन्दू मुस्लिम करते है मीठे गहनों का कारोबार
जात पात से परे रंगो के इस त्यौहार पर हिन्दु ही नहीं बल्कि मुस्लिम भी इन मीठे गहनों का व्यापार करते हंै, मालवा की परंपरा में शामिल शक्कर से बनी इन मीठी मालाओं और गहनों का हजारों क्विंटल में व्यापार होता है. लगभग 70 से 100 रूपए किलो तक इनको बेचा जाता है. ग्रामीण क्षेत्रो की महिलाएं और बच्चे जमकर इनकी खरीददारी करते हैं. वर्षो से इस पुश्तैनी व्यापार को कर रहे हुजेम अली बोहरा के अनुसार होली पर लगभग आठ से दस दिनों तक इन आभुषणों का अच्छा कारोबार हो जाता है. बाजार में जगह जगह फुटपाथों पर इनकी कई दुकानें लगने के बाद भी आज भी इन आभूषणों का व्यापार कम नहीं हुआ है.
30 वर्षों से कर रहे है कारोबार
सुसनेर निवासी राजेन्द्र जैन लगभग 30 वर्षो से भी अधिक समय से इन रंगबिरंगी मालाओं और आभुषणों को बनाते चले आ रहे हैं. उनके जैसे कई दुकानदार होली के पंद्रह दिन पहले से ही इनको बनाना शुरू कर देते हैं. शक्कर की चासनी में खाने वाले रंगो को डालकर इन्हें बनाया जाता है. खास बात यह है की महंगाई और आधुनिकता चकाचौंध के बावजुद इन मीठे आभुषणों की मांग आज भी बनी हुई है.