पवैया के इंतजार की इन्तहां हो गई…

ग्वालियर चंबल डायरी
      हरीश दुबे
  मंदिर आंदोलन का प्रमुख चेहरा रहे बजरंगी नेता जयभान सिंह पवैया क्या अपनी पार्टी से नाराज हैं। देवानन्द की फ़िल्म का एक दर्द भरा गाना पोस्ट कर उन्होंने अपने दिल की कसक बयां की है, हालांकि उनकी पोस्ट में सियासत का जिक्र नहीं है लेकिन सियासी मायने तो निकाले ही जा रहे हैं। इन छह महीनों में तीन बार उनकी टिकट की उम्मीदों पर पानी फिरा है, पहले विधानसभा, फिर राज्यसभा और लोकसभा। तीनों चुनाव में उनका नाम मजबूती से उभरा, अखबारों में साया हुईं संभावितों की फेहरिस्त में उनका नाम सुर्खियां बनता रहा, लेकिन जब प्रत्याशियों की सूची जारी हुईं तो हर बार की तरह उनका नाम नदारत था।
समर्थक कहते हैं कि अब तो इंतजार की इन्तहां हो गई। अयोध्या में राममंदिर के प्राणप्रतिष्ठा समारोह में जिस तरह पवैया को मंच पर वजन दिया गया था, उसके बाद से समर्थकों को यकीन हो गया था कि बजरंगी दादा का टिकट तो पक्का ही है लेकिन आशाएं जल्द ही धूलधूसरित हो गईं। अब कहा जा रहा है कि चुनाव बाद होने वाली निगम बोर्डों की नियुक्तियों में पवैया की जगह पक्की है लेकिन समर्थकों की नजर में पवैया का कद इससे कहीं बढ़कर है। पवैया जैसी ही दास्तां कभी पार्टी के सूबा सदर और दो बार राज्यसभा के मेंबर रहे प्रभात झा की भी है।
   कागजों तक सीमित होकर रह गया सिटी ऑफ म्यूजिक का दर्जा
गुजरे साल सूबे के स्थापना दिवस पर यूनेस्को से अपने ग्वालियर शहर को दुनियाबी तौर का बड़ा खिताब “सिटी ऑफ म्यूजिक” के रूप में मिला था, तब से करीब आधी साल बीत चुकी है लेकिन यह खिताब बस कागजों तक ही सिमट कर रह गया है, इस खिताब के पीछे की मंशा को जमीनी तौर पर अमलोदरफ्त में लाने के लिए ग्वालियर के प्रशासन से लेकर सूबाई सरकार की तरफ से अब तक एक सींक भी नहीं धरी गई है। सूबे में भोपाल तो राजधानी है ही लेकिन ग्वालियर और जबलपुर को क्रमशः संगीतधानी और संस्कारधानी का दर्जा हासिल है। संगीत सम्राट तानसेन और बैजू बावरा से लेकर कृष्णराव शंकर पण्डित और उस्ताद अमजद अली तक संगीतसाधकों की कई पीढ़ियों की संगीत साधना ने ग्वालियर के वैभव को उत्कर्ष पर पहुंचाया है। यूनेस्को द्वारा ग्वालियर को सिटी ऑफ म्यूजिक का दर्जा दिए जाने के बाद उम्मीद तो यही बंधी थी कि यहाँ की संगीत परम्परा को और अधिक समृद्ध करने वाले सुनहरे आयाम जुड़ेंगे लेकिन जिम्मेदारों के यथास्थितिवाद और उदासीनता को देखकर फिलहाल तो ऐसा कुछ नजर नहीं आ रहा है।
   सिंधिया परिवार के दुःख में साथ खड़ा हुआ पूरा ग्वालियर
   समूचा ग्वालियर चंबल अंचल अभी तक शोकमग्न है। राजमाता माधवीराजे के निधन से ग्वालियर पर जो सितम बरपा, उसकी दर्द भरी कसक यहाँ के राजनीतिक, सामाजिक क्षेत्र ही नहीं बल्कि सामान्य जनजीवन पर साफ महसूस की जा सकती है। देश की आजादी के बाद से ही राजे रजवाड़े बीते दिनों की बात हो गए थे लेकिन इस अंचल में सिंधिया परिवार ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है। राजमाता के निधन पर संवेदना जताने जिस तरह पूरा अंचल जयविलास महल में उमड़ा और हर तरफ अश्रुपूरित वातावरण दिखा, उससे यही जाहिर हुआ कि राजनीति से इतर भी इस परिवार के यहां के लोगों से दिलों के रिश्ते हैं। एक दौर वह भी था, जब सिर्फ ग्वालियर ही नहीं बल्कि समूचे सूबे की सियासत जयविलास पैलेस से ही चलती थी। सिंधिया परिवार से टकराने पर डीपी मिश्रा से लेकर कमलनाथ जैसे राजनीति के मंजे हुए कद्दावर खिलाड़ियों को मुख्यमंत्री पद से रुखसत भी होना पड़ा। इस परिवार ने राजनीतिक मतभेदों को निजी संबंधों के आड़े नहीं आने दिया। राजमाता के परलोकगमन पर शोक जताने सूबे भर से नेता महल पहुंच रहे हैं लेकिन कमलनाथ और दिग्विजय के अब तक न आने पर लोग अपने अपने नजरिए से टिप्पणियां कर रहे हैं।
  नेतृत्व ने मना किया है इस्तीफे पर कुछ कहने से…
   ग्वालियर कांग्रेस के मुखिया देवेन्द्र शर्मा ने टिकट वितरण से असंतुष्ट होकर चुनाव बाद अपने पद से इस्तीफा देने का ऐलान कर दिया था। प्रदेश में चुनाव निबट चुके हैं लेकिन अब पंडितजी की ओर से अपने इस्तीफे से मुतालिक कोई बयानात नहीं दिए जा रहे। कुछ खबरनवीसों ने उन्हें पुराने ऐलान की याद दिलायी तो जवाब दिया कि प्रदेश नेतृत्व ने उन्हें इस्तीफे के बारे में सार्वजनिक तौर पर कोई बात नहीं करने का हुक्म दिया है। ऑफ द रिकॉर्ड वे फरमाते हैं कि उनकी पार्टी न सिर्फ ग्वालियर बल्कि आसपास की तमाम सीटें जीत रही है और हमने चुनाव में मेहनत की है, इसलिए इस्तीफे की नौबत ही नहीं आएगी…।

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