न्यायपालिका और विधायिका हमारे संविधान और लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण स्तंभ हैं. न्यायपालिका का कार्य जहां संविधान की रक्षा और उसकी व्याख्या करना है, तो विधायिका का काम संविधान की मूल भावना के अनुरूप कानून बनाना और जन आकांक्षाओं की पूर्ति करना है. जाहिर है संविधान में न्यायपालिका और विधायिका दोनों का समान महत्व है. ना कोई किसी से छोटा और नीचा है और ना कोई ऊपर या बड़ा है. कई बार ऐसा लगता है कि न्यायपालिका और विधायिका में टकराव हो रहा है. हालांकि यह हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता और संविधान की श्रेष्ठता है कि अभी तक यह टकराव वास्तविकता में नहीं बदल पाया है.बहरहाल, ताजा मामला दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के सरकारी निवास पर मिले कथित जले नोटों का है. इस मामले के सामने आने पर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं. सुप्रीम कोर्ट ने मामले का संज्ञान लेते हुए तीन न्यायाधीशों की जांच समिति बना दी है. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना ने इस मामले से जुड़े सारे दस्तावेज और तथ्य सुप्रीम कोर्ट की अधिकृत वेबसाइट पर अपलोड कर दिए हैं. ताकि मामले की पारदर्शिता बनी रहे. इधर राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस मामले को गंभीर बताते हुए एक बार फिर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को नियुक्त करने वाले कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठाया है. उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है जब जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता और उच्च नैतिक मान दंड स्थापित किए जाएं. उपराष्ट्रपति के इस बयान को विधायिका के न्यायपालिका के साथ टकराव के तौर पर देखा जा रहा है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति के लिए संसद द्वारा एकमत से पारित प्राधिकरण को खारिज कर चुका है.वैसे तो उपराष्ट्रपति के बयान ने कॉलेजियम सिस्टम पर विमर्श का मौका दिया है लेकिन इस मामले में यदि न्यायपालिका और विधायिका में टकराव होता है, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा. इससे बचा जाना चाहिए. हालांकि उपराष्ट्रपति जो खुद सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अभिभाषक रहे हैं, ने इस तरह के किसी भी टकराव की अटकलों को खारिज किया है. जहां तक दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर मिले कथित जले हुए नोटों का सवाल है तो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मामले की गंभीरता को समझते हुए सभी उचित कदम उठाए हैं. सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की एक जांच समिति गठित की है. वहीं पारदर्शिता सुनिश्चित करने और गलत सूचनाओं को दूर करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत जांच रिपोर्ट भी सार्वजनिक की है. इस रिपोर्ट ने निष्कर्ष दिया है कि पूरे मामले की गहन जांच की आवश्यकता है. ऐसा जरूरी भी था क्योंकि उच्च न्यायपालिका की ईमानदारी और विश्वसनीयता दांव पर है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1997 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए गए ऐतिहासिक- ‘न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन’ यानी चार्टर में यह निर्दिष्ट किया गया था कि किसी न्यायाधीश द्वारा ऐसा कोई कार्य या चूक नहीं होनी चाहिए, जो उनके उच्च पद और उस पद के प्रति सार्वजनिक सम्मान के अनुरूप न हो. वास्तव में सत्य, न्याय और न्यायिक जवाबदेही के हित में ऐसे मामलों में कार्यवाही को तेजी से आगे बढ़ाने का दायित्व अदालतों और जांच एजेंसियों का है.कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट अपनी निगरानी में जांच कर रहा है. इसलिए सभी को सुप्रीम कोर्ट की जांच के निष्कर्षों की प्रतीक्षा करनी चाहिए. इस पर अनावश्यक बयान बाजी और मीडिया ट्रायल भी बंद होना चाहिए. ध्यान रहे न्यायपालिका आम जनता की आशा की अंतिम किरण है. न्यायपालिका पर जनता का विश्वास अक्षुण्ण रहे इसका ध्यान सभी ने रखना चाहिए.