सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

तलाकशुदा मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता देने का निर्णय देकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक कदम उठाया है. स्वाभाविक रूप से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को शाहबानो 2.0 कहा जा रहा है.दरअसल,तलाकशुदा मुस्लिम महिला को सामान्य कानून के तहत पति से गुजारा-भत्ता लेने के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अपनी मुहर लगा दी है. कोर्ट के आदेश से तलाकशुदा मुस्लिम महिला को 4000 रुपये प्रतिमाह गुजारा-भत्ता मिलेगा. सुप्रीमकोर्ट ने तलाक शुदा मुस्लिम पत्नी को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजाराभत्ता देने के परिवार अदालत के आदेश को सही ठहराया है. कोर्ट ने गुजारे भत्ते की रकम घटाने का हाईकोर्ट का आदेश निरस्त कर दिया है.

ये फैसला न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और अगस्टिन जार्ज मसीह की पीठ ने तेलंगाना के मोहम्मद अब्दुल समद की याचिका को खारिज करते हुए सुनाया है. सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में बदलते समय के साथ नारी अधिकार और नारी स्वतंत्रता का जिक्र करते हुए कहा है कि अब पुरुषवादी मानसिकता का कोई औचित्य नहीं रह गया है.इस मामले में सर्वोच्च अदालत ने पति की ये दलील खारिज कर दी थी कि मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा-भत्ता नहीं मांग सकती. फैसला देते समय सुप्रीम कोर्ट के विद्वान जजों ने जो टिप्पणियां की हैं वो इतनी महत्वपूर्ण हैं कि उनकी बुकलेट छपवाकर बंटनी चाहिए. सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि पत्नी का भरण पोषण करना पति का दायित्व है.अगर पति कमाने लायक है तो आर्थिक रूप से असमर्थ होने का बहाना बना कर अपनी जिम्मेदारी ने नहीं बच सकता. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की यह टिप्पणी भी काबिले गौर है कि इस आरोप को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि पति ने गुजारे भत्ते की जिम्मेदारी से बचने के लिए परिवार अदालत के फैसले के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति ले ली थी. इस फैसले की खास बात यह है कि दोनों जजों ने अलग-अलग फैसले सुनाए. हालांकि दोनों की राय एक समान रही. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते समय जो टिप्पणियां की है उन्हें न्याय के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज किया जाएगा. जजों की विशेष बेंच ने कहा कि भरण-पोषण किसी तरह का दान नहीं है.यह विवाहित महिलाओं का अधिकार है. सीपीसी की धारा 125 पत्नी, संतान, माता-पिता के भरण-पोषण का अधिकार देती है. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में यह भी कहा कि अब समय आ गया है जब पुरुष महिलाओं की भावनाओं का सम्मान करें और उन्हें आर्थिक रूप से सुरक्षा प्रदान करें यही नहीं कोर्ट ने यह तक कहा कि महिलाओं को उनका हक और न्याय दिलाने का मामला किसी भी धर्म से ऊपर है. इसलिए ये सभी विवाहित महिलाओं पर लागू होता है. हर धर्म की महिला ये हक मांग सकती है.

जाहिर है महिलाओं के हक और उनकी आर्थिक सुरक्षा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में मुस्लिम पर्सनल लॉ या शरिया कानून पर विचार नहीं किया. सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला और प्राकृतिक न्याय प्रणाली को अभूतपूर्व मजबूती प्रदान करने वाला है. इस फैसले के कारण महिलाओं के अधिकार और उनके आर्थिक सुरक्षा को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है. महिलाओं के अधिकार यदि स्त्री विमर्श के केंद्र में आते हैं तो इनका स्वागत किया जाना चाहिए. इस फैसले की आड़ में एक वर्ग यह मांग कर रहा है कि देश में अब समान आचार संहिता लागू करने का समय आ गया है. कॉमन सिविल कोड की इच्छा हमारे संविधान निर्माता ने भी व्यक्त की थी.इसी वजह से कॉमन सिविल कोर्ट के मुद्दे को डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स में शामिल किया गया है. हालांकि केंद्र सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि मामले की संवेदनशीलता इतनी अधिक है कि समान आचार संहिता को जबरन नहीं थोपा जाए. इस मामले में व्यापक सहमति बनाना ही उचित होगा. इसके अलावा मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना करने की बजाय अपने गिरेबान में झांकना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय दिया है वो पहले से ही अधिकांश मुस्लिम देशों में लागू है. जहिर है सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला मुस्लिम पर्सनल लॉ के खिलाफ नहीं बल्कि महिलाओं के हक में है. इसलिए इस फैसले को सामाजिक दृष्टिकोण से देखना चाहिए ना कि सांप्रदायिक चश्मे से !

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