आखिर क्या चाहती हैं ममता बनर्जी ?

पश्चिम बंगाल में जो कुछ चल रहा है वो अभूतपूर्व है. यह समझ के बाहर है कि सत्ता के और विपक्ष के इतने पदों पर रही ममता बनर्जी आखिर चाहती क्या हैं ? वो लगातार सीधे संविधान और हर भारतीय संस्था को चुनौती दे रही हैं. पहले उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के खिलाफ सार्वजनिक मंचों पर बयान देना प्रारंभ किया जिसमें देश की सर्वोच्च अदालत ने 25000 शिक्षकों की फर्जी भर्ती को खारिज कर दिया था. उसके बाद ममता बनर्जी ने संसद द्वारा पारित वक्फ संशोधन कानून को मानने से ही इनकार कर दिया. क्या किसी राज्य का मुख्यमंत्री राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षरित कानून को मानने से इनकार कर सकता है ? क्या संविधान में इसकी अनुमति है ? इसके पूर्व नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के खिलाफ केरल और पश्चिम बंगाल विधानसभा ने तो बाकायदा प्रस्ताव पारित किए थे. कश्मीर विधानसभा में भी नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी के विधायक वक्फ संशोधन कानून को मानने से इनकार कर रहे हैं. इधर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन डी- लिमिटेशन और त्रिभाषा फार्मूले के खिलाफ ऐसे ऐसे वक्तव्य दे रहे हैं जो किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री के लिए अपेक्षित नहीं है. भारत के कुछ राज्यों के विपक्ष मुख्यमंत्री जिस तरह की बयान बाजी कर रहे हैं, ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया. आमतौर पर भाजपा और कांग्रेसी सरकारों के मुख्यमंत्री खुलेआम संविधान के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी करते हुए कभी नहीं देखे गए. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के दृष्टिकोण में यही अंतर होता है. क्षेत्रीय दल अपनी उप सांस्कृतिक अस्मिता को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, लेकिन राष्ट्रीय दल ऐसा नहीं कर सकते. यही वजह है कि देश को ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रीय दलों की जरूरत है. बहरहाल, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने संविधान, सुप्रीम कोर्ट और बीएसएफ जैसे अर्ध सैनिक संगठनों के खिलाफ बयान बाजी करने की सारी हदें पार कर दी हैं. दरअसल यह सही मौका है जब सुप्रीम कोर्ट को इस बयान बाजी का संज्ञान ले लेना चाहिए. वस्तुत: पश्चिम बंगाल में जो कुछ हो रहा है वो देश के किसी भी अन्य राज्य में नहीं हो सकता. यहां तक कि केरल, कश्मीर और हैदराबाद जैसे अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में भी वो नहीं हो सकता जो पश्चिम बंगाल में हो रहा है.इसका कारण यह है कि पश्चिम बंगाल की पूरी राजनीति पिछले लगभग 73 वर्षों से कोलकाता के बंगाली भद्र लोक की मु_ी में है.यही भद्र लोक दरअसल नैरेटिव सेट करता है, जिसके आधार पर पश्चिम बंगाल में चुनाव होते रहे हैं. पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है जहां मार्क्सवादी हारते थे तो भी हिंसा होती थी, जीतते थे तो भी हिंसा होती थी. 2011 के बाद टीएमसी के शासन में भी यही पैटर्न है. कोलकाता के भद्र लोक को ऐसी किसी भी हिंसा से कभी परहेज नहीं रहा, जिसे राष्ट्रवादी या हिंदुत्व विरोधी संगठन करते हों, लेकिन जैसे ही इससे एक प्रतिशत भी हिंसा गुजरात में होती है तो पश्चिम बंगाल में बहुत शोर मचता है. दरअसल पश्चिम बंगाल की सत्ता की कुंजी इसी बंगाली भद्र लोक के पास है.2019 में भाजपा को पहली बार थोड़ी सफलता मिली, जब पार्टी ने 18 लोकसभा सीटें जीती. 2022 में ममता बनर्जी ने कोलकाता के भद्र लोक को एक्टिवेट कर नैरेटिव बदल दिया. नतीजे में भाजपा 77 सीटों पर आकर रुक गई. जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव के आधार पर वो 125 सीटों पर आगे थी. 2024 में टीएमसी ने फिर से कोर्स करेक्शन किया और भाजपा को 2019 से भी नीचे ला दिया. यह समझना होगा कि पश्चिम बंगाल में भद्र लोक के कारण ही कभी भी दलित आंदोलन सफल नहीं हुआ. यहां फुले, अंबेडकर, शाहू और कांशीराम के विचार कभी नहीं चले. पश्चिम बंगाल की मार्क्सवादी राज्य समिति में तो बड़ी मुश्किल से ओबीसी होते थे, दलितों को तो पता ही नहीं था. जाहिर है जब तक कोलकाता का भद्र लोक ममता के साथ है, तब तक भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल एक कठिन अग्नि परीक्षा है.बहरहाल, राजनीति अपनी जगह है और संवैधानिक संस्थाएं अपनी जगह. ममता बनर्जी को यह हमेशा याद रखना चाहिए !

 

 

 

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