शनिवार को विश्व जल दिवस मनाया गया. स्वाभाविक रूप से सुबह से रात तक इस पर चर्चा होती रही. दरअसल पानी की उपलब्धता की जो स्थिति है, उसको देखते हुए पानी बचाना सभी की आदत में शामिल होना चाहिए. इसके लिए व्यापक जन जागरण की आवश्यकता है.पहले कहा जाता था कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए होगा. अब कहा जा रहा है कि एक समय लोगों के लिए पीने का पानी मिलना भी मुश्किल होगा.पृथ्वी का 80 प्रतिशत भाग जल से सराबोर है. इसमें से 97.5 $फीसदी महासागरीय जल है, जो पीने योग्य नहीं है. सिर्फ 1 प्रतिशत पानी ही पीने लायक है, जिसे बचाने की जरूरत है. पहले कहा जाता था कि आवश्यकता सभी अविष्कारों की जननी है, लेकिन अब कहा जाता है कि प्रगति सभी समस्याओं की जननी है. यह एक अंतहीन चक्र है. जल चक्र में पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता सबसे जरूरी कारक हैं, जिस पर ध्यान देना होगा. जल संरक्षण के लिए आर्टिफिशियल ग्राउंड वॉटर रीचार्जिंग, रेन वाटर हार्वेस्टिंग, घरेलू पानी का समझदारी से उपयोग और वेस्ट वाटर की रिसायकलिंग सबसे जरूरी उपाय हैं. जाहिर है सबसे अच्छा तरीका वेस्ट वाटर को दोबारा उपयोग में लाना है, क्योंकि हमें पीने के लिए बहुत कम पानी चाहिए, जबकि बाकी जरूरतों के लिए बड़ी मात्रा में पानी खर्च होता है. इस संदर्भ में सिंगापुर ने मिसाल कायम की है. वहां पीने के पानी का कोई प्राकृतिक स्रोत नहीं है. वे पहले मलेशिया से पानी खरीदते थे, लेकिन यह महंगा पड़ता था. इसके बाद उन्होंने वेस्ट वाटर को इतना ट्रीट किया कि वह पीने योग्य हो गया. भारत में भी यह तकनीक आसान है, लेकिन लोग अभी भी ट्रीटेड पानी को अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं. बहरहाल, छोटे-छोटे बदलाव से पानी बचाया जा सकता है. एक छोटे से लीकेज से सालभर में 1 लाख लीटर पानी व्यर्थ हो जाता है. बड़ी बाल्टी की जगह छोटी बाल्टी और बड़े मग की जगह छोटा मग इस्तेमाल करने से भी जल संरक्षण में मदद मिलेगी. एक रिपोर्ट के अनुसार देश के महानगरों और टू टियर श्रेणी के शहरों में बाथ टब की वजह से लगभग 100 लीटर पानी खर्च होता है. आज की दुनिया पानी खर्च करने की ऐसी विलासिता बर्दाश्त नहीं कर सकती.इसलिए
सिर्फ एक दिन वल्र्ड वाटर डे मनाने से कुछ नहीं बदलेगा, इसके लिए निरंतर जागरूकता और सही आदतों की जरूरत है. अलग-अलग देशों में कृषि में जल उपयोग की मात्रा भिन्न होती है,भारत में 300 लीटर पानी जिस काम में लगता है, वही मात्रा ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका में अलग हो सकती है. इसलिए, न केवल दिखने वाले पानी की, बल्कि छिपे हुए जल संसाधनों की भी बचत जरूरी है.भारत में 1 किलो चावल के उत्पादन में 2500 लीटर, मक्के में 300 लीटर और शक्कर में 2500 लीटर पानी की खपत होती है.जल की कमी वाले क्षेत्रों में अत्यधिक पानी खपत करने वाली फसलें उगाने से सूखे की स्थिति उत्पन्न हो सकती है. भारत जैसे देश में, जहां कई क्षेत्र पहले से ही जल संकट का सामना कर रहे हैं, गेहूं, चावल और शक्कर की खेती में पानी ज्यादा लगता है. ऐसे में उसका उपयोग कम करके, मोटे अनाज का उपयोग खाने में लाना चाहिए क्योंकि उसकी खेती में पानी कम लगता है. वाटर फुट प्रिंट संस्था की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति लगभग 1000 लीटर पानी की खपत होती है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह 2000 से 2500 लीटर तक पहुंच जाती है.
एक कॉटन शर्ट को कपास बोने से उसके शर्ट बनने तक में लगभग 2500 लीटर पानी खर्च होता है, जबकि जींस पेंट के निर्माण में 4000 लीटर पानी की जरूरत होती है. खाने की थाली में जितना हम झूठा छोड़ते है तो खाने के साथ वो पानी भी व्यर्थ होता है जो उसके पकने में उपयोग हुआ है.यानी जो पानी विजिबल है उसके संरक्षण के साथ ही जो पानी इनविजिबल उसकी भी रक्षा जरूरी है. कुल मिलाकर पानी की बचत करना हमारी रोजमर्रा की आदत में शामिल करना होगा तभी बात बनेगी.