शिक्षा क्षेत्र में गुणवत्ता जरूरी

यह सही है कि पिछले कुछ दशकों में स्कूली और उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में बहुत उन्नति हुई है, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेजों की संख्या बढ़ी है. मेडिकल कॉलेजों में भी कई गुना वृद्धि हुई है, लेकिन जिस तरह से भारत के छात्र विदेशों में पढऩे के लिए लालायित रहते हैं उससे एक प्रश्न उठता है कि क्या हमारी शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर अंतर्राष्ट्रीय दर्जे का है ? विश्व की श्रेष्ठ पहली सौ यूनिवर्सिटीज में देश की चुनिंदा यूनिवर्सिटीज आती हैं. आईआईटी और आईआईएम के अलावा देश में उंगली पर गिनने लायक संस्थान हैं,जिन्हें विश्व स्तर का माना जा सकता है. जाहिर है उच्च शिक्षा के स्तर और गुणवत्ता के मामले में बहुत कुछ किया जाना चाहिए. दरअसल,इस समय यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि इंग्लैंड और अमेरिका के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अपनी फैकल्टीज भारत में खोल रहे हैं ? इसको लेकर शिक्षाविद दो मतों में विभाजित हो गए हैं. अनेक अकादमिक विद्वानों को लगता है कि विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में आने के अनुमति नहीं देनी चाहिए. जबकि दूसरे पक्ष का कहना है कि ऐसा करने से भारतीय विश्वविद्यालयों में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और वो भी अपने स्तर में सुधार करेंगे. बहरहाल,आजादी के समय देश में सिर्फ डेढ़ लाख स्कूल थे, आज देश में स्कूलों की संख्या बढ$कर बीस लाख से ज्यादा हो गई है. इन स्कूलों में करीब 24 करोड़ छात्र पढ़ते हैं.शिक्षा राष्ट्र की समृद्धि का एकमात्र जरिया है.आजादी के समय देश की आबादी 36 करोड़ थी, मगर साक्षरता सिर्फ 18 प्रतिशत थी.वहीं, महिलाओं के मामले में हालात और खराब थे. देश की आजादी के समय 9 प्रतिशत से भी कम महिलाएं पढ़ी-लिखी थीं. लेकिन अब देश में साक्षरता का प्रतिशत 80 तक पहुंच गया है. महिला साक्षरता की दर भी बहुत पीछे नहीं है. बहरहाल,जहां तक उच्च शिक्षा का सवाल है, तो उच्च शिक्षा हर क्षेत्र में रिसर्च और डेवलपमेंट के रास्ते खोलती है. आजादी के बाद अब तक बनी सरकारें जानती थी कि उच्च शिक्षा पर फोकस किए बिना ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में झंडे नहीं गाड़े जा सकते. इसलिए इस पर भी बहुत काम हुआ है. आजादी के वक्त देश में सिर्फ 20 यूनिवर्सिटी और 404 कॉलेज थे. आज इनकी संख्या में कई गुना इजाफा हो चुका है. अतीत में हायर एजुकेशन में क्वांटिटी पर ज्यादा और क्वालिटी पर फोकस कम रहा है.आज भी थोक के भाव से यूनिवर्सिटीज खुली हैं, मगर पढ़ाई अच्छी नहीं हो रही है. कुछ इंजीनियरिंग कॉलेजों की स्थिति और भी बुरी है. निजी संस्थाओं और उद्यमियों ने कॉलेज तो खोल दिए हैं, मगर कई जगह फैकल्टी अच्छी नहीं रखी जा रही है. कई संस्थानों में अच्छी लैब्स भी नहीं हैं.आज हमारे सामने सैकड़ों निजी इंजीनियरिंग कॉलेज ऐसे भी हैं जहां फीस निजी स्कूलों से कम है.स्कूली शिक्षा में कई जगह निजी क्षेत्र ने अच्छा काम किया है, मगर उच्च शिक्षा में अभी बहुत काम होना बाकी है.वर्तमान में हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं, जो धीरे-धीरे ग्लोबल हो रही है.शिक्षण संस्थाओं के प्रसार की दिशा में भले ही हम प्रगति कर रहे हों, लेकिन यह साफ है कि शिक्षा डिजिटल तकनीक माध्यम से देने में हम असफल रहे हैं. आने वाले समय में विकसित भारत को निर्मित करने का मुख्य आधार शिक्षा ही है. इसके लिए हमें आधुनिक शिक्षा एवं शिक्षकों को समग्र दृष्टि से परिपक्व बनाना होगा, तभी शिक्षा की कमियां दूर हो सकेगी.हमें शिक्षकों को अध्यापन से इतर कार्यों से विमुक्त करना होगा. अभी तक अध्यापकों की ड्यूटी चुनावी कार्यक्रमों के निपटान, मिड डे मील का प्रबंधन, सर्वेक्षण कार्यों तथा कई और सरकारी कार्यों के निपटान में लगाई जा रही हैं.इससे अध्यापकों के समक्ष यह संकट उत्पन्न हो जाता है कि सिलेबस का अध्यापन पूरी तरह कैसे करवाया जाए? शिक्षा का लक्ष्य छात्र को एक परिपक्व मानव बनाना होता है. छात्र का नैतिक कल्याण और उसमें मानवीय सद्गुणों का प्रत्यारोपण भी शिक्षा का लक्ष्य है.इस काम को छात्रों, अभिभावकों तथा अध्यापकों के आपसी सहयोग से पूरा किया जा सकता है. सद्गुण संपन्न नागरिक बनाना ही शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए.बस, प्रयासों की जरूरत है.

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