आदिमानव की कला प्रतिभा की बनी हैं गवाह, धार्मिक मान्यताओं तथा संस्कृति की मिलती है झलक
सीधी:पुरातत्व की दृष्टि से सीधी जनपद सदैव से एक समृद्धि स्थान रहा है। आदिकाल से लेकर आज तक सभ्यता की लड़ी यहां कभी खंडित नहीं होने पाई। यहां की पावन भूमि हमारी अनेक धार्मिक मान्यताओं तथा सांस्कृतिक उत्थानों को अपने में संनिहित किये हुए हैं। बौद्धाडांड, सेमरा, तुर्रा, चंदरेह, गौरागिरि, धवला गिरि, रानीमांची आदि में भित्ति चित्र तथा हमारी प्राचीनतम् सभ्यता के प्रकाश स्तंभ मौजूद हैं। सिद्ध भूमि सीधी का अतीत हमारे देश का सांस्कृतिक वैभव है।जिले के इतिहासकार डॉ.संतोष सिंह चौहान द्वारा डॉ.सत्यकुमार सिंह के साथ बगदरा अभ्यारण्य अंतर्गत स्थित गौरागिरि, धवला गिरि एवं रानी मांची के आदि मानवों द्वारा निर्मित शैल चित्रों का काफी गहराई के साथ अध्ययन किया।
सीधी मुख्यालय से 90 किमी दूर उत्तर-पूर्व चितरंगी तहसील के बगदरा अभ्यारण्य में मुख्य मार्ग से कुछ पूर्व में दो तथा पश्चिम में एक पहाड़ी कंदरा स्थित है। जिन्हें स्थानीय बोली में दरी कहते हैं। इन दरी, कंदराओं में निर्मित चित्रकारी के ध्यानपूर्वक निरीक्षण से उनकी प्रागैतिहासिकता में कोई संदेह प्रतीत नहीं होता। आदि मानव द्वारा अपनी कला प्रतिभा प्रदर्शित करने के लिए पहाडिय़ों के पाश्र्व की ऐसी प्राकृतिक कंदराओं अथवा खोहों के उपयोग का यह दृश्य तत्व केवल भारत तक ही सीमित नहीं है अपितु प्राचीन विश्व के अन्यान्य स्थानों में भी दृष्टिगोचर होता है। भारत में अनेक स्थानों पर यह दृश्य तत्व प्राप्त है। सीधी जनपद की कंदराओं की चित्रकारी पूर्णत: प्रारंभिक शैली में है और साधारण रेखाओं द्वारा लाल गेरू रंग से की गई है। इन चित्रों की प्राचीनता केवल इन्ही प्रत्यक्ष प्रवृत्तियों से प्रदर्शित नहीं होती।
वरन दूसरी विशेषताओं से भी प्रदर्शित होती है। जिनमें चित्रित पशु प्रकार तथा उनकी चित्रण रीति भी सम्मलित है। लालगेरू लोहे का जारेय रूप मात्र है और यह धातू सीधी में पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है।सीधी जनपद के इन कंदराओं में हाथी के अतिरिक्त उन सभी पशुओं के चित्र निर्मित किये गये हैं जो यहां के वनों में पाए जाते हैं। प्रागैतिहासिक गुहाचित्रों में चित्रित पशु समूहों में अधिकतर चित्र हिरन की जाति के हैं। गोरागिरि में कंदरा के सभी चित्र लालगेरू रंग से बने हैं। इनमें से कुछ की चमक तो ज्यों की त्यों बनी हुई है किन्तु काफी कुछ फीके पड़ चुके हैं।
इसमें साड, सांभर, हिरन, चीतल, नीलगाय तथा कुछ अस्पष्ट पशु चित्रों के साथ ऐसे पशुओं के भी चित्र निर्मित किये गये हैं जो आपस में एक-दूसरे के संघर्षरत हैं। इन पशु चित्रों के साथ गोफन, नाव, जाल, मयूर, मछली तथा पंजे की छाप को भी तूलिका से बनाया और भरा गया है। इसी तरह रानीमांची गुफा में पुरूषों के घेरे के बीच कई प्रकार के जानवरों के चित्र दिखाए गए हैं। ये सब चित्र भी लालगेरू से बनाए गए हैं। इन गुफाओं के समीप ही सैकड़ों की संख्या में आदि मानवों की समाधियां भी मिली हैं। आज उन समाधियों की खुदाई व सुरक्षा की आवश्यकता है। अन्यथा कृषक उन्हें कृषि सुविधा के लिए खोद-खोदकर खेतों के बीच से उनके मूल स्वरूप को नष्ट करते जा रहे हैं।
हत्था दरी में पांचागुलिका
चुरहट तहसील में छोटा टीकट व मवई गांव के समीप एक पहाड़ी के मध्य हत्था दरी नामक स्थान पर दरी के भीतर छत भाग पर एक पांचागुलिका (हांथ की हथेली और पांचों ऊंगलियों को प्रतिरूपित करने वाला एक चिन्ह) का चित्र निर्मित किया गया है। पंजे की यह छाप दाये हाथ की है या बाएं हाथ की स्पष्ट नहीं हो पाया है। यह चित्र भी लालगेरू रंग से बनाया गया है। सीधी जनपद के सभी पहाड़ी कंदराओं में लालगेरूएं रंग से आकृतियां निर्मित की गई हैं। इनका समय शैली के आधार पर चार हजार ईसा पूर्व से ईसवी संवद प्रारंभ होने के बीच में निश्चित किया जा सकता है। इन गुहा चित्रों से जिनमें मनुष्य के साथ प्रारंभिक कलाकार द्वारा शिकार किये जाने वाले पशु भी अंकित हैं। इससे ज्ञात होता है कि प्रागैतिहासिक युग के मांशाहारी पुरूष का भोजन किस प्रकार से था।
प्राचीन सभ्यता के जनक
सीधी जनपद में उपलब्ध प्रागैतिहासिक सभ्यता के जनक कौन थे और किस जाति के थे इस विषय पर अभी तक निर्णय नहीं हो पाया है। बहुत संभव है कैमूर और अमरकंटक की मध्यवर्ती भूमि ही कोलारियन सभ्यता का श्रोत स्थल बनी हो। जिसमें लोहा का सर्वप्रथम प्रयोग कर विश्व की महान क्रांति का उद्बोधन किया। कोल, भील, सौर, कोदर आदि इसी कुल के हैं। उन्होंने जंगल जलाने, खेती करने और खुदाई करने का कार्य आरंभ किया। कई पौराणिक गाथाएं भी इसकी पुष्टि करती हैं। यज्ञ, ऋक्ष, गंधर्व, कपि, कीटक और पारावतों ने इसी समय के लगभग हिमवान और ब्रम्हदेश से आकर सभ्यता के निर्माण में योगदान किया। इन चित्रों का निश्चित तिथि क्रम कुछ शताब्दियों की अवधि में बाधना बड़ा दुरूह है किन्तु इस बात में संदेह नहीं है कि समूचे रूप में उनका तिथि निर्धारण लौह युग में किया जा सकता है।
इनका कहना है
सिद्धभूमि सीधी में जगह-जगह पुरातन संस्कृति के अवशेष मौजूद हैं। उनके द्वारा कई स्थानों में अपने साथी पुरातत्वविदों के साथ काफी बारीकी के साथ सर्वेक्षण एवं खोज का अभियान चलाया गया था। उसी दौरान बौद्धाडांड, सेमरा, तुर्रा, चंदरेह, गौरागिरि, धवलागिरि, रानीमाची आदि जगहों में भित्ति चित्र के अवशेष मिले थे।
डॉ.संतोष सिंह चौहान, प्राध्यापक
संजय गांधी महाविद्यालय सीधी