महाकौशल की डायरी
अविनाश दीक्षित
महाकोशल वासियों को उम्मीद थी कि संभवत: इस बार केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अंचल के किसी नेता को स्थान अवश्य मिलेगा, किन्तु उनकी यह हसरत फिर पूरी नहीं हो सकी। माना जा रहा था कि आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र मंडला से फग्गन सिंह कुलस्ते अथवा शहडोल से निर्वाचित हिमाद्रि सिंह को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिल सकती है। कयास लगाये जा रहे थे कि आदिवासी समुदाय के बीच नये नेतृत्व को उभारने के लिए महिला कोटे से हिमाद्रि सिंह को चयनित किया जा सकता है, लेकिन दोनों ही जनप्रतिनिधियों को तवज्जों नहीं मिल सकी।
जबलपुर को ठगा जाना कोई नई बात नहीं है। दशकों से उसके साथ ऐसा ही होता आ रहा है। स्मरण रखने वाली बात यह है कि जबलपुर न केवल महाकोशल की धुरी है, बल्कि यहां से लगातार पांचवीं जीत भाजपा को मिली है, वह भी हर बार रिकार्ड मतों से जबलपुर वासियों ने भाजपा प्रत्याशियों को जिताया है। बावजूद इसके जब महत्व मिलने की बात होती है, तब-तब जबलपुर वासियों को उम्मीदों का झुनझुना पकड़ा दिया जाता है। 1957 से लेकर अब तक हुये लोकसभा चुनाव में कांग्रेस से स्व.सेठ गोविंददास और भाजपा से राकेश सिंह ही लगातार चुनाव जीते हैं, लेकिन कभी भी जबलपुर को उसका हक नहीं मिल सका।
कांग्रेस को बदलना होगा परिवारवाद की छवि: तन्खा
महाकोशल सहित मध्यप्रदेश के विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में बुरी तरह परास्त हुई कांग्रेस कारणों पर आत्ममंथन कर रही है। इस बीच पार्टी के बड़े नेता और सुप्रसिद्ध कानूनविद विवेक तन्खा ने नसीहत देते हुये कहा है कि कांग्रेस को नये सिरे से खड़े करने की जरूरत है। श्री तन्खा ने बेबाकी से स्वीकार किया कि या तो हम चुनाव मशीनरी को समझ नहीं पा रहे हैं, या फिर चुनाव के तरीकों तथा लोगों को समझ नहीं पा रहे हैं। कहीं ना कहीं कमी हो रही और इसे हमें बिना झिझक स्वीकार करना चाहिए कि हमारी कमजोरी से ही हमारी यह स्थिति है।श्री तन्खा ने यह भी कहा कि कांग्रेस को परिवादवाद की छवि को मिटाना होगा, साथ ही पार्टी के बड़े नेताओं को मतभेद – मनभेद हटाकर एक साथ काम करना होगा।
इसके अलावा गैर राजनीतिक परिवेश से आने वाले युवाओं को यह विश्वास दिलाते हुये कि कांग्रेस में उनका राजनीतिक भविष्य बेहतर बन सकता है, पार्टी से जोड़ना होगा। इसके अलावा पार्टी को अपना वोट शेयर बढ़ाने की ओर भी ध्यान देना होगा। कांग्रेस की बेहतरी के लिए श्री तन्खा ने कई और नसीहतें तथा सुझाव दिये, लेकिन वह भूल गये कि कांग्रेस में गुटबाजी एक परम्परा की तरह ही है, जिसे हटा पाना लगभग असंभव ही है। हालिया सम्पन्न लोकसभा चुनाव में भी गुटबाजी के चलते कांग्रेस प्रत्याशी दिनेश यादव अलग-थलग चुनाव लड़ते नजर आये। बिखरे संगठन और पार्टी के जनाधार वाले नेताओं की रस्म अदायगी भूमिका के चलते मतदाताओं के बीच न कांग्रेस की गांरटियों वाली बात पहुंच सकी और न ही कई क्षेत्रों में प्रत्याशी जा पाये। आलम यह भी रहा कि पोलिंग बूथ में बैठने तक के लिए कार्यकर्त्ताओं का अभाव रहा। ऐसी स्थिति में कांग्रेस की गुटीय राजनीति का समापन और उसे उबारने के लिए जिस विजन और मिशन की जरूरत है, वह भी फिलहाल नजर नहीं आ रहा हैं।