न फायर ब्रिगेड के संसाधन हैं,न ही पार्किंग के लिए उचित व्यवस्था
नवभारत न्यूज
खंडवा। शहर के बेतरतीब विकास का जिम्मेदार कौन? किन्हें इसे व्यवस्थित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है? नगर निगम और टाउन एण्ड कंट्री प्लानिंग वाले क्या कर रहे हैं? ऊंची ईमारतें तानने से ही विकास नहीं होगा। कागजी नोटिस थमाने से काम नहीं चलेगा। ठोस कार्रवाई अधिकांश धर्मशाला, बंैकों और काम्प्लेक्स पर कब होगी? इनमें न फायर ब्रिगेड के संसाधन हैं। न ही पार्किंग के लिए उचित व्यवस्था। यहां तक कि निगम द्वारा निर्मित दुकानों में भी पार्किंग स्पेस नहीं छोड़ा गया है।
शहर को व्यवस्थित करने का दावा करने वाली निगम की दिक्कतें कम होती नहीं दिख रही हैं। यातायात को लेकर निगम और पुलिस विभाग आमने-सामने हैं। शादी-ब्याह शुरू हो गए हैं। अतिक्रमण से सड़क़ें अव्यवस्थित यातायात से वैसे ही अवरूद्घ हैं। कई धर्मशालाओं में पार्किंग व्यवस्था नहीं होने के कारण रोड जाम होना शुरू हो गए हैं। इसके लिए निगम,नगर निवेश विभाग और पुलिस दोनों ही के पास ठोस योजना नहीं है। पिछले कई कलेक्टरों ने पंपलेट की तरह नोटिस बंटवाए। अदालतों तक लोग पहुंच गए। फिर भी जिम्मेदारों पर असर नहीं हुआ।
सूबेदार नहीं डीएसपी हो गए मुखिया
यातायात विभाग में विस्तार हुआ है तो केवल सूबेदार से डीएसपी का पद हो गया है। विभागों में स्थाई निगमायुक्त के बजाए डिप्टी कलेक्टर हो गए। अब तो बड़े पदों पर सामान्य दर्जे के अफसर आने लगे हैं, ताकि वे पदाधिकारियों की सुन सकें। व्यवस्था में कोई खास व ठोस परिवर्तन नहीं दिख रहा। शहर के बीचोबीच व्यस्त मार्गों व आसपास स्थित सालों पुरानी धर्मशालाओं और परिसरों में अधिकांश के यहां पार्किंग व्यवस्था नहीं है। नेता भी वोट बैंक के चलते इस विवाद में हाथ नहीं डालना चाहते हैं। लगभग सभी धर्मशालाओं और परिसरों में प्रभावशाली लोग डटे हुए हैं।
बैंक व धर्मशालाएं दोषी
एक-दो परिसर छोड़ दिए जाएं, तो किसी के पास भी पार्किंग स्थल नहीं है। सालों से इन पर निगम ने कार्रवाई नहीं की। यही कारण है, अव्यवस्था होने के बाद भी बैंको धर्मशालाओं के कई समाजसेवी बनने वाले ट्रस्ट्रियों ने इस दिशा में कारगर कदम नहीं उठाए।
शहर में कई वर्षों पुराने भवन बने हुए हैं। आगे पार्किंग के लिए जगह ही नहीं है। जनसंंख्या बढ़ती गई,स्थान कम होता चला गया। अब व्यवस्था परिवर्तन कैसे किया जाए?
निगम भी इनके साथ
यातायात की बिगड़ी व्यवस्था शहर के लिए नासूर बन गई है। बावजूद इसके निगम व्यवस्थाओं से सीखने को तैयार नहीं। एक ओर तो निगम के आलाधिकारी छोटे मार्केट के लिए भी पार्किंग अनिवार्य बताते है। निगम के बनाए मार्केट में भी पार्किंग व्यवस्था गायब हो गई। जिन मार्केट भवनों को निगम अपनी उपलब्धि बता रहा है,वहां पार्किंग व्यवस्था के लिए जगह ही नहीं है।
निगम की दुकानों में भी पार्किंग नहीं
लाखों रुपए में निगम ने दुकानें बेचीं, लेकिन पार्किंग व्यवस्था जैसा शहर हित को ताक पर रख दिया। इंजीनियरों ने पता नहीं किस प्रलोभन से नक्शे पास कर भवनों को स्वीकृति दे दी। यदि नहीं भी दी तो उन्हें तोड़ा क्यों नहीं गया? निजी मार्केट बनाने वालों को सख्ती बताई जाती है, लेकिन यह भी बातों तक सीमित रह गई है। कई ऐसे मार्केट हाल ही में बने है, जिनमें पार्किंग व्यवस्था नहीं है।