हिमाचल और कर्नाटक : सबक लेने की जरूरत

गारंटी योजनाओं और रेवड़ी कल्चर के चलते हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो गई है. कर्नाटक में तो उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने साफ कहा है कि सरकार को पांच गारंटी योजनाओं को पूरी करने के लिए 40,000 करोड रुपए प्रति वर्ष का अतिरिक्त खर्च आ रहा है. इस वजह से फिलहाल उनकी सरकार विकास कार्य करने में असमर्थ है.दूसरी ओर हिमाचल प्रदेश के सरकारी कर्मचारी और पेंशनर्स को इस महीने का वेतन नहीं मिल पाया है. जाहिर है रेवड़ी कल्चर के दुष्परिणाम सामने आए हैं. कर्नाटक , हिमाचल प्रदेश में तो कांग्रेस की सरकारें, लेकिन रेवडिय़ां बांटने के मामले में कोई भी पार्टी पीछे नहीं हैं.भाजपा और शिवसेना के महाराष्ट्र सरकार और हरियाणा की नायब सिंह सैनी की सरकार भी यही कर रही है.अर्थव्यवस्था की दृष्टि से ये रेवड़ी संस्कृति हमारे देश को भारी पडऩे वाली है! देश के अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री इस पर लंबे समय से चिंता जाता रहे हैं. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ कठोर टिप्पणियां की है, लेकिन राजनीतिक दल हैं कि मानने को तैयार नहीं हैं . भाजपा जो गारंटियां दे रही हैं वह भी रेवड़ी संस्कृति का ही बदला हुआ स्वरूप है. इसलिए इस मामले में सभी दल दोषी हैं.दरअसल, इस मामले में आम आदमी से कोई नहीं पूछ रहा कि वो आखिर चाहता क्या है ? आम आदमी मुफ्त में अनाज नहीं, बल्कि आसान जिंदगी चाहता है. वह चाहता है कि महंगाई कम हो और नौजवानों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हों. यदि इतना भी हो जाए तो भी आम आदमी अपने में मस्त रहेगा. आम आदमी यह भी चाहता है कि उसे अपनी शिक्षा और योग्यता के अनुसार उचित नौकरी की गारंटी मिले. देश में भ्रष्टाचार का सफाया हो.देश में किसी को भूखा नहीं मरने दिया जाए.पिछले दिनों देश में मनरेगा की दरें बढ़ाने के वादे हुए. लेकिन आर्थिक विषयों के मर्मज्ञ अभी तक यह जान नहीं पाए कि मनरेगा जैसी योजना जिसमें वर्ष में बेरोजगार परिवार के एक सदस्य को 100 दिन का रोजगार दिया जाता है. आखिर ?उसके उत्पादन के किसी निर्दिष्ट लक्ष्य से क्यों नहीं जोड़ा जाता? क्यों अब तक लार्ड केन्स की थ्योरी ही चलती है कि सार्वजनिक निवेश करो.. फिर चाहे गड्ढे खोदने और उन्हें भरने का ही काम क्यों न हो? लेकिन ऐसा काम क्यों? आखिर मनरेगा में निर्माण योजनाएं क्यों सामने नहीं आतीं? ताज़ा की गई घोषणाओं में हर चुनावी दल के एजेंडे में महिलाओं को प्रति माह 1 हजार से 15 सौ रुपये देने के वादे हैं। मुफ्त राशन है, मुफ्त बिजली है और मुफ्त चिकित्सा भी,लेकिन अर्थशास्त्री कहते हैं कि इस तरह की रेवड़ी घोषणाओं से राज्य अपने कुल राजस्व की सीमा से बाहर चले जाते हैं. अपने वादों या गारंटियों को पूरा करने के लिए उन्हें कर्ज चुकाने पड़ते हैं. हर कर्ज पर ब्याज अदा करना पड़ता है और मूल की वापसी भी करनी पड़ती है. मुफ्त बिजली की योजना बिजली उत्पादन और वितरण प्रणाली पर भारी पड़ती है. राज्यों पर अत्यधिक कर्ज का भार पड़ता है. 13 वें वित्तीय आयोग ने तीन राज्यों को कर्ज के जाल में फंसने के बारे में चेताया था.उन्हें इस जाल से बाहर आने के लिए वित्तीय सुधार के निर्देश दिए थे. ये राज्य थे केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल.पंजाब का यह हाल है कि उसे अपने ग्रामीण विकास फंड का 6 हजार करोड़ रुपया केन्द्र से लेने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है. पंजाब पर 3,23,135 करोड़ रुपये का कर्ज हो गया है. अगले वर्ष में यह घटने की बजाय 3,53,600 करोड़ हो जाएगा. दरअसल, नि:शुल्क बिजली , बसों की मुफ्त यात्रा और अन्य रियायतों की योजनाएं राज्यों की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रही हैं. वैसे राज्य सरकारों का मुख्य राजस्व तो वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने पर ही खर्च हो जाता है. जनता के लिए लोकलुभावन घोषणाओं को पूरा करने के वास्ते अधिक से अधिक कर्ज उठाया जाता है.यह नीति बदलनी होगी. कुल मिलाकर यह रेवड़ी संस्कृति देश के लिए भारी पडऩे वाली है. इसलिए राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में राजस्व वृद्धि के स्रोत भी दिखाने चाहिए लेकिन ऐसे वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम किसी भी दल के राजनीतिक घोषणा पत्र में नजर नहीं आते !

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