उत्तराखंड ने एक बड़ा कदम उठाते हुए समान नागरिक संहिता लागू कर दी है. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस संहिता की नियमावली और आधिकारिक पोर्टल का लोकार्पण किया, जिससे राज्य में सभी नागरिकों के समान अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं. यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की प्रक्रिया 27 मई 2022 को शुरू हुई थी, जब एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया. राज्य विधानसभा ने 8 फरवरी 2023 को इस विधेयक को पारित किया और 8 मार्च 2024 को इसे राष्ट्रपति से मंजूरी मिल गई. इसके बाद अक्टूबर 2024 में नियमावली तैयार की गई और अब 27 जनवरी 2025 से यह संहिता लागू हो गई है. मुख्यमंत्री का दावा है कि उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू होने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सभी नागरिकों को उनके धर्म या पृष्ठभूमि के बावजूद समान अधिकार मिलें.इसका मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत मामलों जैसे- विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि में समानता लाना है. भाजपा ने यह अच्छा किया कि कॉमन सिविल कोड पूरे देश में लागू करने की कोशिश करने की बजाय उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में पायलट प्रोजेक्ट की तरह लागू किया. दरअसल, समान नागरिक संहिता कानून मूलत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे में रहा है. बाद में 1951 में जब भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई तो भारतीय जनसंघ ने अपने पहले राजनीतिक प्रस्ताव में इसे शामिल किया . तभी से भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के कोर एजेंडे में कॉमन सिविल कोड का मुद्दा शमिल है. जाहिर है केंद्र की भाजपा कॉमन सिविल कोड को पूरे देश में लागू करने की बजाय अपने राज्यों में लागू कर रही है, ताकि इसके व्यावहारिक पहलुओं को परखा जा सके. जहां तक कॉमन सिविल कोड का सवाल है तो यह हमारे संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शामिल है. सुप्रीम कोर्ट कम से कम छह बार कॉमन सिविल कोड को देश में लागू करने की बात कह चुका है. जाहिर है सैद्धांतिक रूप से हमारा सविधान सभी नागरिकों के लिए एक कानून की वकालत करता है. सुप्रीम कोर्ट के समर्थन के बावजूद पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करना आसान नहीं है. इसलिए केंद्र सरकार को व्यापक विचार विमर्श करने के बाद ही इसे लागू करना चाहिए. दरअसल,एक ओर जहां देश की बहुसंख्यक आबादी समान नागरिक संहिता को लागू करने की पूरजोर मांग उठाती रही है, वहीं अल्पसंख्यक वर्ग इसका विरोध करता रहा है.
इसमें कोई शक नहीं कि महिलाओं को समान अधिकार मिलना रेगिस्तान में नखलिस्तान से कम नहीं होगा लेकिन, इस संहिता को लागू करने में कदम-कदम पर आने वाली चुनौतियां भी कम नहीं हैं.
एक तरफ जहां अल्पसंख्यक समुदाय नागरिक संहिता को अनुच्छेद 25 का हनन मानते हैं, वहीं इसके झंडाबरदार समान नागरिक संहिता की कमी को अनुच्छेद 14 का अपमान बता रहे हैं.
लिहाजा, सवाल उठता है कि क्या सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता किया जा सकता है कि समानता के प्रति हमारा आग्रह क्षेत्रीय अखंडता के लिए ही खतरा बन जाए ? क्या एक एकीकृत राष्ट्र को ‘समानता’ की इतनी जरूरत है कि हम विविधता की खूबसूरती की परवाह ही न करें?
दूसरी तरफ सवाल यह भी है कि अगर हम सदियों से अनेकता में एकता का नारा लगाते आ रहे हैं तो, कानून में भी एकरुपता से आपत्ति क्यों ? क्या एक संविधान वाले इस देश में लोगों के निजी मामलों में भी एक कानून नहीं होना चाहिए ? दरअसल,हमारे यहां मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम पुरुष को चार विवाह करने की छूट है. ऐसी छूट मुस्लिम देशों में भी नहीं है. क्या कोई भी सभ्य समाज बहु विवाह की प्रथा को सही ठहरा सकता है ? जाहिर है कॉमन सिविल कोड हमारे आज के समाज की जरूरत है. इसलिए उत्तराखंड सरकार के इस कदम को स्वागत योग्य मानना चहिए.