राजनीति के मौजूदा दौर में बढ़ती रेवड़ी संस्कृति !

मौजूदा दौर की राजनीति में रेवड़ी संस्कृति बढ़ती जा रही है. अर्थव्यवस्था की दृष्टि से ये रेवड़ी संस्कृति (या अप संस्कृति) हमारे देश को भारी पडऩे वाली है! देश के अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री इस पर लंबे समय से चिंता जाता रहे हैं. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी रेवड़ी संस्कृति के खिलाफ कठोर टिप्पणियां की है, लेकिन राजनीतिक दल हैं कि मानने को तैयार नहीं हैं इस मामले में सभी दल दोषी हैं.दरअसल, इस मामले में आम आदमी से कोई नहीं पूछ रहा कि वो आखिर चाहता क्या है ? आम आदमी मुफ्त में अनाज नहीं, बल्कि आसान जिंदगी चाहता है. वह चाहता है कि महंगाई कम हो और नौजवानों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हों. यदि इतना भी हो जाए तो भी आम आदमी अपने में मस्त रहेगा. आम आदमी यह भी चाहता है कि उसे अपनी शिक्षा और योग्यता के अनुसार उचित नौकरी की गारंटी मिले. देश में भ्रष्टाचार का सफाया हो.देश में किसी को भूखा नहीं मरने दिया जाए.पिछले दिनों देश में मनरेगा की दरें बढ़ाने के वादे हुए. लेकिन आर्थिक विषयों के मर्मज्ञ अभी तक यह जान नहीं पाए कि मनरेगा जैसी योजना जिसमें वर्ष में बेरोजगार परिवार के एक सदस्य को 100 दिन का रोजगार दिया जाता है. आखिर ?उसके उत्पादन के किसी निर्दिष्ट लक्ष्य से क्यों नहीं जोड़ा जाता? क्यों अब तक लार्ड केन्स की थ्योरी ही चलती है कि सार्वजनिक निवेश करो.. फिर चाहे गड्ढे खोदने और उन्हें भरने का ही काम क्यों न हो? लेकिन ऐसा काम क्यों? आखिर मनरेगा में निर्माण योजनाएं क्यों सामने नहीं आतीं? ताज़ा की गई घोषणाओं में हर चुनावी दल के एजेंडे में महिलाओं को प्रति माह 1 हजार से 15 सौ रुपये देने के वादे हैं। मुफ्त राशन है, मुफ्त बिजली है और मुफ्त चिकित्सा भी,लेकिन अर्थशास्त्री कहते हैं कि इस तरह की रेवड़ी घोषणाओं से राज्य अपने कुल राजस्व की सीमा से बाहर चले जाते हैं. अपने वादों या गारंटियों को पूरा करने के लिए उन्हें कर्ज चुकाने पड़ते हैं. हर कर्ज पर ब्याज अदा करना पड़ता है और मूल की वापसी भी करनी पड़ती है. मुफ्त बिजली की योजना बिजली उत्पादन और वितरण प्रणाली पर भारी पड़ती है. राज्यों पर अत्यधिक कर्ज का भार पड़ता है. 13 वें वित्तीय आयोग ने तीन राज्यों को कर्ज के जाल में फंसने के बारे में चेताया था.उन्हें इस जाल से बाहर आने के लिए वित्तीय सुधार के निर्देश दिए थे. ये राज्य थे केरल, पंजाब और पश्चिम बंगाल.पंजाब का यह हाल है कि उसे अपने ग्रामीण विकास फंड का 6 हजार करोड़ रुपया केन्द्र से लेने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा है. पंजाब पर 3,23,135 करोड़ रुपये का कर्ज हो गया है. अगले वर्ष में यह घटने की बजाय 3,53,600 करोड़ हो जाएगा. दरअसल, नि:शुल्क बिजली , बसों की मुफ्त यात्रा और अन्य रियायतों की योजनाएं राज्यों की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ रही हैं. वैसे राज्य सरकारों का मुख्य राजस्व तो वेतन, पेंशन और ब्याज चुकाने पर ही खर्च हो जाता है. जनता के लिए लोकलुभावन घोषणाओं को पूरा करने के वास्ते अधिक से अधिक कर्ज उठाया जाता है.यह नीति बदलनी होगी.पहले हर राज्य यह समझ लें कि जो कर्ज वह केन्द्र या रिजर्व बैंक से ले रहा है, वो अंतत: उसे चुकाना है. मूलधन ही नहीं, ब्याज सहित भी.इसमें कोई रियायत नहीं होगी.कर्ज का जाल तो हर देश, हर राज्य के लिए जंजाल हैं .इससे जूझने के उपाय भी उत्पादन और निवेश की धरातल पर होने चाहिए.केंद्र व शीर्ष न्यायपालिका ने मुफ्त बिजली और अन्य मुफ्त सुविधाएं देने वाले राज्यों को कर्ज के जाल में फंसने की चेतावनी दी है.दरअसल,लोक लुभावन घोषणाएं अतिरिक्त उत्पादन या निवेश का परिणाम नहीं होतीं, उससे देश की जीडीपी से लेकर देश के रोजगार में अतिरिक्त वृद्धि भी नहीं होती.हां, इतना अवश्य है कि राज्यों पर कर्ज का बोझ बढ़ जाता है,जो अंतत: उनके हाथ बांध देता है क्योंकि उन्हें कर्ज तो चुकाने ही पड़ते हैं. कुल मिलाकर यह रेवड़ी संस्कृति देश के लिए भारी पडऩे वाली है. इसलिए राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र में राजस्व वृद्धि के स्रोत भी दिखने चाहिए लेकिन ऐसे वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम किसी भी दल के राजनीतिक घोषणा पत्र में नजर नहीं आते !

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