न्यायिक सुधारों की सख्त जरूरत

सुप्रीम कोर्ट के 75 वर्ष पूर्ण होने पर हुए समारोह में भारत की न्याय व्यवस्था को लेकर महामहिम राष्ट्रपति, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री ने जो कुछ कहा वह गंभीरता से चिंतन करने योग्य है. तीनों की चिंता कोर्ट में पेंडिंग मामलों और न्याय में मिल रही देरी को लेकर है. यह सही है कि अधीनस्थ न्यायालय में चार करोड़ और सुप्रीम कोर्ट तथा हाईकोर्ट में लाखों मुकदमे पेंडिंग हैं, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इसके लिए सिर्फ जज या न्याय प्रणाली जिम्मेदार नहीं है. कोर्ट में बढ़ते लंबित मामलों का कारण जजों की कमी होना है. इस मामले में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति धनंजय विष्णु चंद्रचूड़ ने प्रधानमंत्री का ध्यान आकर्षित किया है. यह बिल्कुल सही बात है कि हमारे यहां जजों की संख्या में भारी कमी है. हाई कोर्ट में निश्चित संख्या के मुकाबले केवल 62 $फीसदी जज नियुक्त हैं. इससे भी खराब स्थिति जिला और अधीनस्थ न्यायालयों की है. यह तो हुई रिक्तियों की बात, लेकिन हकीकत यह भी है कि भारत में एक लाख लोगों पर 21 जज हैं. जबकि देश के विधि आयोग ने प्रति एक लाख नागरिक 50 जजों की नियुक्ति की सिफारिश की है. एक लाख नागरिकों पर 21 जजों की रिपोर्ट 2011 की जनगणना के अनुसार है. मौजूदा जनसंख्या के आधार पर यदि आकलन किया जाए तो इस समय प्रति एक लाख 18 जज से ज्यादा का अनुपात नहीं होगा. जाहिर है देश को पहली जरूरत तो यह है कि न केवल अदालतों की संख्या बढ़ाई जाए बल्कि जजों की संख्या भी पर्याप्त रखी जाए. न्याय में विलंब का एक कारण पुलिस द्वारा समय पर और मुकम्मल चार्ज शीट दाखिल नहीं होना भी है. पुलिस के सामने भी यही दिक्कत है कि थानों में पर्याप्त स्टाफ नहीं है. हमारे देश में पुलिस बल की भारी कमी है. केंद्र सरकार ने पिछले दिनों इंडियन पीनल कोड को संशोधित कर तीन नए कानून बनाएं हैं. सरकार का दावा है कि इन कानूनों से त्वरित न्याय की अवधारणा सही होगी और मुकदमों का बोझ कम होगा. निश्चित रूप से केंद्र सरकार न्यायपालिका की समस्याओं की तरफ ध्यान दे रही है लेकिन देश को व्यापक न्यायिक सुधारों की जरूरत है. आज भी गरीब व्यक्ति अदालत का दरवाजा खटखटा नहीं सकता. मध्यमवर्गीय व्यक्ति भी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए 10 बार सोचता है. जाहिर है न्याय न केवल त्वरित हो और सुलभ हो बल्कि सस्ता भी हो. इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के सुझावों पर केंद्र सरकार ने गंभीरता से विचार करना चाहिए.दरअसल, महिलाओं के खिलाफ अपराध बनने के बाद से न्यायिक सुधार के मामले में देश में एक नई बहस प्रारंभ हुई है. समाज शास्त्री मानते रहे हैं कि महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों की वजह वह जटिल व्यवस्था भी है, जिसके चलते अपराधी बच निकलने का रास्ता निकाल लेते हैं. किसी भी वारदात के बाद आम विमर्श का विषय होता है कि अपराधियों में पुलिस व कानून का भय नहीं रह गया है. कुछ लोग मानते हैं कि सख्त कानून के साथ ही त्वरित न्याय भी अपराधियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना पाएगा.कोलकाता में एक मेडिकल कालेज के अस्पताल में महिला डॉक्टर से दुष्कर्म व हत्या कांड ने पूरे देश को उद्वेलित किया है.पूरे देश में अपराधियों को शीघ्र व सख्त दंड देने की मांग की जा रही है.यदि पुलिस व जांच एजेंसियां पुख्ता सबूतों के साथ अदालत में पहुंचें तो गंभीर मामलों में आरोप जल्दी सिद्ध हो सकेंगे.

बहरहाल, देश में शीर्ष स्तर पर भी यह धारणा बलवती हो रही है कि विभिन्न हित धारक सामूहिक जिम्मेदारी निभाएं, जिससे उस धारणा को तोड़ा जा सकता है कि न्याय देने वाली प्रणाली तारीख पर तारीख की संस्कृति को बढ़ावा देती है.विश्वास किया जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना के 75 वर्ष होने पर शीर्ष न्यायिक नेतृत्व लंबित मामलों के निपटारे के लिये नई प्रभावी रणनीति बनाएगा. इस दिशा में सरकार को भी सुप्रीम कोर्ट के सुझावों को गंभीरता से लेना चाहिए.

 

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