लोक गायिका निशा राठौर को हाईकोर्ट से झटका

सीधी पेशाब कांड पोस्ट मामले में एफआईआर खारिज करने से इंकार
जबलपुर। सीधी पेशाब कांड पोस्ट मामले में लोक गायिका निशा सिंह राठौर को हाईकोर्ट से झटका लगा है। हाईकोर्ट जस्टिस जी एस अहलूवालिया की एकलपीठ ने छतरपुर जिले के कोतवाली थाने में दर्ज एफआईआर निरस्त करने से इंकार कर दिया। एकलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि याचिकाकर्ता अपने ट्विटर और इंस्टाग्राम अकाउंट पर जो कार्टून अपलोड किया घटना के अनुरूप नहीं था। उन्होंने कुछ अतिरिक्त चीजें जोड़ी थीं, इसलिए यह नहीं माना जा सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का प्रयोग करते हुए उन्होंने कार्टून अपलोड किया था। कलाकार को व्यंग्य के माध्यम से आलोचना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए लेकिन कार्टून में किसी विशेष पोशाक को जोड़ना व्यंग्य नहीं कहा जा सकता है।

उत्तर प्रदेश के अम्बेडक़र नगर निवासी लोक गायिका की तरफ से दायर याचिका में छतरपुर के कोतवाली थाने में उनके खिलाफ धारा 153 ए के तहत दर्ज की गयी एफआईआर खारिज किये जाने की राहत चाही गयी थी। याचिकाकर्ता ने सीधी पेशाब कांड के बाद अपने सोशल मीडिया से एक पोस्ट की थी। जिसमें अरक्षित वर्ग का व्यक्ति जमीन में अर्ध नंगा बैठा है और खाकी रंग का हॉफ पेंट पहने व्यक्ति उस पर पेशाब कर रहा था। याचिकाकर्ता पर अन्य राजनीतिक पार्टी के एजेंट होने के आरोप लगाये जा रहे थे। याचिकाकर्ता बताना चाहती थी कि वह किसी से डरती नहीं है। सरकार की तरफ से याचिका का विरोध करते हुए कहा गया कि इसके बाद तनाव की स्थिति बन गयी थी। धारा 153 ए के तहत धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना और सद्भाव बनाए रखने के लिए हानिकारक कार्य करना है।
एकलपीठ ने अपने आदेश में कहा कि मर्जी से किसी खास विचारधारा के लोगों की

पोशाक क्यों पहनी, यह एक ऐसा सवाल है जिसका फैसला इस मुकदमे में किया जाना है। किसी खास पोशाक को पहनना इस बात का संकेत था कि याचिकाकर्ता यह बताना चाहता था कि अपराध किसी खास विचारधारा के व्यक्ति ने किया है। इस प्रकार, यह सद्भाव को बाधित करने और दुश्मनी, घृणा या दुर्भावना की भावना भड़काने का स्पष्ट मामला था। याचिकाकर्ता के अधिवक्ता का तर्क है कि आईपीसी की धारा 153ए के तहत अपराध करने का कोई इरादा नहीं था, इस पर अदालत का मानना है कि यह एक बचाव है जिसे मुकदमे में साबित करना होगा। कानून का सुस्थापित सिद्धांत है कि अदालत कार्यवाही को तभी रद्द कर सकती है जब एफआईआर में लगाए गए निर्विवाद आरोप अपराध नहीं बनाते हैं। याचिकाकर्ता द्वारा अपने ट्विटर और इंस्टाग्राम अकाउंट पर अपलोड किया गया कार्टून, उस घटना के अनुरूप नहीं था, जो घटित हुई थी और आवेदक द्वारा अपनी मर्जी से कुछ अतिरिक्त चीजें जोड़ी गई थीं। न्यायालय का यह सुविचारित मत है कि यह नहीं कहा जा सकता कि आवेदक ने अपने मौलिक अधिकार का प्रयोग करते हुए कार्टून अपलोड किया था। मौलिक अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, पूर्ण अधिकार नहीं है और इस पर उचित प्रतिबंध लागू होते हैं। एक कलाकार को व्यंग्य के माध्यम से आलोचना करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, लेकिन कार्टून में किसी विशेष पोशाक को जोड़ना व्यंग्य नहीं कहा जा सकता। आवेदक का प्रयास बिना किसी आधार के किसी विशेष विचारधारा के समूह को शामिल करना था। इसलिए, यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के दायरे में नहीं आएगा और यहां तक कि व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत प्रतिबंधित हो सकती है।

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