शिक्षा में सुधार का दृष्टिकोण कहां ?

2024 के लोकसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को संपन्न हो जाएगा. अब तक सभी राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा पत्र या संकल्प पत्र जारी कर दिए हैं. इन घोषणा पत्रों से पता चलता है कि इनमें शिक्षा को बहुत अधिक महत्व नहीं दिया गया है. भाजपा ने मेडिकल और इंजीनियरिंग तथा उच्च शिक्षा के मामले में अपनी उपलब्धियां गिनाई हैं तो आम आदमी पार्टी ने मुफ्त शिक्षा का वादा किया है. अन्य दलों ने शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय को चंद पंक्तियों में समेट दिया है. कुल मिलाकर राजनीतिक दलों के लिए शिक्षा कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है. जबकि वास्तव में यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होना चाहिए. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घोषित एक रैंकिंग के अनुसार भारत अब 148 विश्वविद्यालयों के साथ एशिया में ‘सबसे अधिक प्रतिनिधित्व वाली उच्च शिक्षा प्रणाली’ बन गया है, जो पिछले वर्ष की तुलना में 37 अधिक है, परंतु एशिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में पहले 10 में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय शामिल नहीं है. इसके बाद 133वें स्थान के साथ चीन और 96 वें स्थान के साथ जापान का स्थान है. म्यांमार, कंबोडिया और नेपाल भी पहली बार इस रैंकिंग में शामिल हुए हैं. क्वाक्वेरेली साइमंड्स (क्यूएस) द्वारा 2024 विश्वविश्वविद्यालय रैंकिंग एशिया को जारी कर दिया गया है.भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बॉम्बे ने क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रैंकिंग-एशिया में भारत में अपना शीर्ष स्थान बरकरार रखा है और रैंकिंग विश्वविद्यालयों की संख्या में भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है.

क्यूएस एशिया यूनिवर्सिटी की रैंकिंग में एशिया के कुल 856 विश्वविद्यालयों को शामिल किया गया है.लेकिन सिर्फ 250 विश्वविद्यालयों की रैंकिंग को ही विभिन्न मानकों की कसौटी पर परखा गया है, बाकियों को एक झुंड की शक्ल में रखा गया है. एशिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में पहले 10 में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय शामिल नहीं है. जबकि पहले सर्वश्रेष्ठ 10 विश्वविद्यालय में चीन, दक्षिण कोरिया और सिंगापुर का बोलबाला है. भारत का एक भी शैक्षिणिक संस्थान इस रैंकिंग में पहले 39 स्थान पर नहीं है.40वें स्थान पर आईआईटी मुंबई को रखा गया है.आईआईटी मुंबई की वर्ल्ड रैंकिंग 149 है. दरअसल इसका कारण अपर्याप्त संसाधनों के अतिरिक्त छात्रों को सलाह देने के लिए गुणवत्तापूर्ण संकाय सीमित संख्या में उपलब्ध होना है.अधिकांश शोधार्थी फेलोशिप के बिना शोधरत हैं या उन्हें समय पर फेलोशिप प्राप्त नहीं हो रही है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनके शोधकार्य को प्रभावित करता है.भारत में 1040 से अधिक विश्वविद्यालय हैं, लेकिन 2.7 फीसदी में ही पीएचडी कार्यक्रमों का संचालन किया जाता है क्योंकि वे वित्तपोषण की कमी और खराब संरचना से ग्रस्त हैं.इसके अलावा विश्वविद्यालयों की वित्तीय समस्या की गंभीरता को समझना होगा. अनेक विश्वविद्यालयों के बुनियादी ढांचे में निवेश घटा है. केंद्र और राज्य सरकारों के पास अनुसंधान और नवाचार हेतु पर्याप्त बजट और विजन नहीं है. खराब वित्तीय प्रबंधन और भ्रष्टाचार के कारण अधिकांश विश्वविद्यालय घाटे में चल रहे हैं. देश के सबसे प्रतिष्ठित और चर्चित मद्रास विश्वविद्यालय को 100 करोड़ रुपए से अधिक का संचित घाटा झेलना पड़ा, जिससे उसे राज्य सरकार से 88 करोड़ रुपए का अनुदान लेने हेतु विवश होना पड़ा. अन्य राज्यों की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है. दरअसल,विश्वविद्यालयों में शिक्षण के पेशे को अधिक लाभप्रद बनाने के लिए फैकल्टी को कंसल्टेंसी प्रोजेक्ट्स चलाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और स्टार्टअप्स के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान करना चाहिए. विश्वविद्यालयों को ऋण और वित्तीय सहायता के लिए समर्पित वित्तपोषण धारा स्थापित करने के साथ-साथ वित्तपोषण में वृद्धि करने की तत्काल आवश्यकता है. स्टार्टअप रॉयल्टी और विज्ञापन जैसे अन्य राजस्व धाराओं का उपयोग करने के लिए भी विश्वविद्यालयों को छूट दी जानी चाहिए. इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने की सख्त जरूरत है. यह जाना माना तथ्य है कि जब तक विश्वविद्यालय परिसरों की स्थिति में सुधार नहीं होगा,तब तक शिक्षा के स्तर में सुधार नहीं आएगा. इस संदर्भ में राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों का विवेचन करें तो निराशा होती है. इन राजनीतिक दलों के पास शिक्षा में सुधार का कोई दृष्टिकोण नहीं है.

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