आयाराम गयाराम का खेल

वह दौर गया जब राजनीति देश सेवा या समाज सेवा के लिए होती थी. स्वाधीनता संग्राम का समूचा दौर इसी तरह की राजनीति का था. मोहनदास करमचंद गांधी का महात्मा गांधी में रूपांतरण इसी तरह की राजनीति के कारण हुआ लेकिन मौजूदा दौर में लगता है राजनीति केवल सत्ता के लिए की जा रही है. भाजपा ने 6 अप्रैल को अपना 44 वां स्थापना दिवस मनाया. इस अवसर पर मध्य प्रदेश भाजपा ने प्रदेश के सभी 65000 मतदान केंद्रों पर बाकायदा अभियान चला कर व्यापक तौर पर दल बदल करवाया. भाजपा का दावा है कि 6 अप्रैल को 126000 अन्य दलों के कार्यकर्ताओं ने भाजपा की सदस्यता ली . जाहिर है भाजपा ने चुनाव जीतने के उद्देश्य से इस तरह का उपक्रम किया . कुल मिलाकर यह सब सत्ता के लिए किया जा रहा है. कांग्रेस को छोडक़र जो नेता भाजपा में आ रहे हैं उनका कथित हृदय परिवर्तन भी केवल सत्ता के कारण हो रहा है. यदि भाजपा आज विपक्ष में होती है तो क्या इतनी भारी संख्या में कांग्रेसी दल बदलते ! दरअसल,सत्ता का स्वाद ही ऐसा होता है कि कोई भी राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं रहता.इसीलिए आजकल दल-बदलने का दौर खूब हो रहा है. यह बात दूसरी है कि ज्यादातर नेताओं में भाजपा का दामन थामने की होड़ मची है.एक दिन पहले भाजपा पर निशाना साधने वाले मुक्केबाज विजेंदर ने अपने भाजपा विरोधी बयान के दूसरे ही दिन कांग्रेस से नाता तोड़ भाजपा का दामन थाम लिया. इसे क्या कहेंगे ? महज चौबीस घंटे में विजेंदर का दिल क्यों बदल गया, इसका जवाब तो उनको ही देना चाहिए था, लेकिन घर वापसी और अपने दल में दम घुटने का बहाना ही नेताओं के पास रहने लगा है.हर बार चुनावों के इस दौर में ‘आयाराम-गयाराम’ के खेल में कभी कोई एक पार्टी बाजी मारती है तो कभी कोई दूसरी पार्टी. सभी सेलिब्रिटी आखिर सत्ता की तरफ ही क्यों भागते हैं? पूर्व न्यायाधीश हों, पूर्व अधिकारी अथवा अभिनेता और खिलाड़ी , वे राजनीति में आएं इससे कोई इनकार नहीं करेगा.अगर भाजपा की विचारधारा विजेंदर या उन जैसे लोगों को अच्छी लगती है तो सवाल यह भी है कि पिछले पांच साल तक वे कांग्रेस में क्यों रहे ? ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है जो गत वर्ष के अंत में हुए विधानसभा चुनावों में एक पार्टी के चुनाव चिह्न पर उम्मीदवार थे तो अब दूसरी पार्टी का चुनाव चिह्न लेकर मैदान में उतरते दिख रहे है. ऐसे नेता फिर किसी नई पार्टी में नहीं जाएंगे इसकी क्या गारंटी है? अच्छे लोग राजनीति में यदि सिर्फ पद पाने के लिए ही आएं तो उसे क्या माना जाए? ऐसी जानी-मानी हस्तियां भी हैं जो आज यहां और कल वहां के उदाहरण पेश कर चुकी हैं. ऐसी सेलिब्रिटी को पार्टी में शामिल होते ही टिकट से पुरस्कृत कर दिया जाता है.राजनीतिक दलों को इस बात पर विचार तो करना ही चाहिए कि आखिर कौन, किस इरादे से पार्टी में आ रहा है.ऐसे ढेरों उदाहरण मौजूद हैं कि नामी-गिरामी लोगों ने राजनीति में प्रवेश किया, टिकट भी मिला और चुनाव जीते भी.उसके बाद जनता से जुड़ ही नहीं पाए और अगले चुनाव में इनका टिकट कट गया.

देश में लंबे समय से चुनाव सुधारों पर चर्चा चल रही है लेकिन चर्चा इस पर भी होनी चाहिए कि टिकट किसे और क्यों दिया जाए? पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर चंद घंटों पहले पार्टी में शामिल होने वाले को टिकट देना कहां तक उचित है. सभी राजनीतिक दलों को विचार करना ही होगा कि राजनीति के मायने चुनाव जीतना भर ही है या फिर वे विचारधारा के लिए समर्पित कार्यकर्ताओं को मौका देकर राजनीति को स्वस्थ रखना चाहते हैं.

 

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