सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण पर दिए फैसले के विरोध में बुधवार को भारत बंद का आह्वान किया गया. हालांकि जन समर्थन नहीं मिलने से भारत बंद विफल हो गया, लेकिन इससे यह पता चलता है कि देश के लगभग सारे राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर रहे हैं. जाहिर है वोट बैंक की राजनीति के कारण ऐसा किया जा रहा है.दरअसल,आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से राज्यों को अति दलित और अति पिछड़ों को वर्गीकृत कर कोटा निर्धारित करने के लिए कहा है उससे जाति आधारित राजनीति करने वाले नेताओं और दलों के साथ ही भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल भी दुविधा में आ गए हैं. खासतौर पर मंडलवादी दल परेशानी महसूस कर रहे हैं.सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कमोबेश सभी राजनीतिक दलों ने किया है, लेकिन सबसे अधिक बेचैनी समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जनता, दल यूनाइटेड, लोक जनशक्ति पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, चंद्रशेखर आजाद रावण की पार्टी में महसूस की जा रही है. इसी बेचैनी का नतीजा है कि बुधवार को इस फैसले के विरोध में किया गया भारत बंद का आह्वान लगभग असफल रहा. भाजपा के दलित और आदिवासी सांसदों ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया है. इस वजह से पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व इस मामले में बैक फुट पर है .वास्तव में इसमें कोई शक नहीं कि पिछले 75 वर्षों से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था के कारण एक क्रिमी लेयर पैदा हो गई है. आरक्षण का लाभ इसी क्रीमी लेयर को मिल रहा है. जैसे आदिवासी आरक्षण का सबसे अधिक लाभ राजस्थान और उत्तर प्रदेश की मीणा जाति को मिला है. जबकि दलित आरक्षण का सर्वाधिक फायदा जाटव, खटीक, पासी और महार ही मुख्य रूप से उठा रहे हैं. जाहिर है इससे संविधान निर्माताओं का सामाजिक विषमता दूर करने का सपना पूरा नहीं हो रहा है.सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भले ही सभी राजनीतिक दल विरोध कर रहे हैं लेकिन सभी पार्टियां जानती हैं कि इस फैसले का असर अति वंचित वर्ग पर दिखाई दे रहा है. देर सबेर यह उपेक्षित दलित और आदिवासी वर्ग जाग खड़ा होगा और अपने हितों के लिए संघर्ष करेगा.सनद रहे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति में आरक्षण वर्गीकरण की बहस, जो लंबे समय से चली आ रही थी, को सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय से दूर कर दिया है. मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत के फैसले में कहा कि राज्यों को राष्ट्रपति ने सूची में अधिसूचित अनुसूचित व अनुसूचित जनजातियों को उपवर्गीकृत करने की अनुमति प्रदान कर दी गई है, ताकि उन्हें सार्वजनिक रोजगार और शिक्षा में ‘अधिक’ अधिमान्यता प्रदान की जा सके. देश में अति वंचित तबकों के अंदर कई तरह के सामाजिक समुदाय जैसे, कामगार, हुनरमंद, कारीगर और बागवानी आदि करने वाले वर्ग सामाजिक न्याय की नीतियों और राजनीति को दुरुस्त करने के लिए लंबे समय से मुखर हैं, लेकिन उन समुदायों की समाज व राजनीति में अदृश्यता है. इसलिए देश की संसद तक उनकी आवाज नहीं आ पाती है. इस फैसले से उन आवाजों को भी बल मिलेगा और उन पर विचार किया जा सकेगा.दरअसल, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय कई मायनों में क्रांतिकारी साबित होगा. इससे अति वंचित समुदाय को आगे आने का मौका मिलेगा.बहरहाल,
आरक्षण वर्गीकरण के विरोध में कई तरह के भ्रामक तर्कों से बहस को भटकाया जा रहा है, जबकि?हमें फैसले को इस तरह से भी देखने की जरूरत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने जाति पदानुक्रम के सबसे निचले पायदान पर स्थित सबसे कम सुविधा प्राप्त समुदायों की चिंताओं को सामने लाकर न्याय की खोज को और गहरा कर दिया है. विरोधी?रुख?उनके ही वर्ग के अति वंचित वर्गों में उनके लिए अविश्वसनीयता पैदा कर रहा है, जबकि विरोधी रुख अपनाने वालों को सोचना चाहिए कि अभी भले ही तात्कालिक रूप से सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने से लाभ मिल जाए लेकिन देर सवेर इसका नुकसान ऐसे सभी राजनीतिक दलों को उठाना पड़ेगा जो क्रीमी लेयर के वर्गीकरण का विरोध कर रहे हैं. कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का विरोध केवल इसलिए किया जा रहा है ताकि वोट बैंक सुरक्षित रहे.