विदेश नीति : अनावश्यक हस्तक्षेप ना करें राज्य !

भारतीय संविधान और उसकी परंपरा के चलते कोई राज्य क्या अपनी स्वतंत्र विदेश नीति अपना सकता है ? जाहिर है इसका उत्तर नहीं में होगा, लेकिन भारत में ऐसा हो रहा है ! दरअसल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही में बांग्लादेश में चल रहे विरोध प्रदर्शन पर अपनी टिप्पणी की है.सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लेकर बांग्लादेश में हिंसक विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं. हिंसा के बीच ममता बनर्जी ने एक प्रस्ताव पारित करते हुए कहा कि अगर बांग्लादेश से शरणार्थी बंगाल में आते हैं तो वो उन्हें शरण देगी.सवाल यह है कि क्या उन्हें ऐसा प्रस्ताव रखने का अधिकार है ? बांग्लादेश सरकार ने तुरंत इसका विरोध किया. शेख हसीना की सरकार ने ढाका स्थित भारतीय उच्चायोग में औपचारिक शिकायत दर्ज कराई.इस पर भारत सरकार ने स्पष्ट किया कि संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत विदेशी मामलों का संचालन केवल केंद्र सरकार का विशेष अधिकार है. राज्यों का इसमें कोई दखल नहीं है. राज्य विदेश मंत्रालय को केवल सुझाव दे सकते हैं.हालांकि दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से ऐसा हो रहा है क्योंकि कई राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं. पश्चिम बंगाल की तरह ही केरल भी विदेश नीति में लगातार हस्तक्षेप कर रहा है. केरल सरकार ने तो अपने यहां एक विदेश सचिव भी नियुक्त कर रखा है. दरअसल, राज्यों को उन मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए जो उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर हैं. दरअसल, यह अत्यंत चिंताजनक मामला है. यदि यह सिलसिला चल पड़ा तो इसके गंभीर परिणाम होंगे. यदि जम्मू कश्मीर की कोई निर्वाचित सरकार सीधे पाकिस्तान से बातचीत करना चाहे तो क्या ऐसा कर सकती है ?अगर तमिलनाडु के पास श्रीलंका के तमिलों से संपर्क करने की अपनी नीति होती तो क्या होता ? अगर पंजाब की सरकार खालिस्तानियों से बातचीत प्रारंभ कर दे तो क्या होगा ? दरअसल , हमारे संविधान निर्माताओं ने सोच समझकर विदेश नीति को केंद्र के जिम्मे में किया है.यदि विदेश नीति और रक्षा मंत्रालय के मामलों में राज्य सरकारें दखल देंगी तो हमारे संघीय ढांचे को खतरा उत्पन्न होगा. इस मामले में किसी तरह की राजनीति नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह एकता और अखंडता का सवाल है ! पश्चिम बंगाल और केरल की सरकारों में इस मामले में बेहद खराब उदाहरण प्रस्तुत किया है. बांग्लादेश में हो रही हिंसा निश्चित रूप से भारत के लिए चिंता का कारण है लेकिन इस मामले में ममता बनर्जी को सीधे बयान देने की बजाय भारतीय विदेश मंत्रालय से संपर्क करना चाहिए था तथा भारत सरकार के साथ मिलकर चर्चा करनी चाहिए थी. ममता बनर्जी बेहद अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं. वो पिछले 13 वर्षों से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं. इसके पहले उन्होंने लगभग एक दशक तक केंद्र में मंत्री पद संभाला है. इसलिए उन्होंने इस तरह के संवेदनशील मामले में केंद्र सरकार के अधिकार में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. इसी तरह केरल की वामपंथी सरकार को भी अपना स्वतंत्र विदेश सचिव नहीं रखना चाहिए. इसकी बजाय राज्य सरकारें विदेश नीति के मामले में सलाहकार नियुक्त कर सकती हैं. आजादी के बाद से अनेक चुनावों में ऐसा हुआ है कि केंद्र सरकार के विरोधी दल की राज्यों में सरकारें हों, लेकिन किसी भी राज्य सरकार ने इस तरह का खराब उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया.दरअसल, देश की एकता और अखंडता दलीय राजनीति से ऊपर होना चाहिए. जाहिर है विदेश नीति के मामले में ममता बनर्जी और पी विजयन सरकार का रवैया न केवल आपत्तिजनक है बल्कि खतरनाक भी है.

 

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