हाल ही में खबर आई कि राजस्थान, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में देव उठनी ग्यारस के बाद बड़ी संख्या में बाल या कम उम्र के विवाह हुए हैं .इक्कीसवीं सदी के भारत में यदि हर पांच में से एक लडक़ी का विवाह 18 साल से कम उम्र में हो जाए तो इसे विडंबना ही कहेंगे.पिछले एक वर्ष में दो लाख बाल विवाह कानून की सख्ती से रोके गए. निश्चित रूप से बाल विवाह मानवाधिकारों का उल्लंघन ही है. जिससे बच्चियां ताउम्र पढ़ाई से वंचित हो जाती हैं और उनका शारीरिक व मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है. बाल विवाह कुपोषण एवं गरीबी का ऐसा चक्र पैदा करता है जिसकी कीमत राष्ट्र को चुकानी पड़ती है. चौंकाने वाले आंकड़े हैं कि हरियाणा, राजस्थान, उप्र,पश्चिम बंगाल, बिहार व त्रिपुरा में 40 प्रतिशत लड़कियों के विवाह 18 साल से पहले हो जाते हैं. यही वजह है कि केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय ने बाल विवाह मुक्त भारत अभियान की शुरुआत की है. दरअसल, यह शुरुआत उन राज्यों को लेकर की गई है,जहां बाल विवाह की दर राष्ट्रीय औसत से अधिक है. तथ्य यह भी कि समाज में गरीबी और बाल विवाह में सीधा रिश्ता है.एक अध्ययन के अनुसार 75 प्रतिशत बाल विवाह गरीब परिवारों में होते हैं. जो कालांतर गरीबी के नये दुश्चक्र को जन्म देते हैं.निश्चित रूप से हमारे समाज में गरीबी व रूढि़वाद के चलते इस कुप्रथा को बल मिलता है.अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि संपन्न, शिक्षित और प्रगतिशील समाजों में बाल विवाह के मामले सामान्यत: नजर नहीं आते। वहीं दूसरी ओर लिंगभेद की सोच भी इन विवाहों को बढ़ावा देती है. अभिभावक विषम परिस्थितियों के चलते अल्पवयस्क लड़कियों का विवाह करके जल्दी अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहते हैं.यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि स्वतंत्रता से पूर्व देश में वर्ष 1929 में बाल विवाह निषेध कानून बनने के बावजूद इस कुप्रथा पर अंकुश क्यों नहीं लग पाया? पहले धारणा थी कि असुरक्षा बोध के चलते बाल विवाह को बढ़ावा मिलता रहा है. कम से कम स्वतंत्र भारत में बाल विवाह की सोच नहीं रहनी चाहिए थी.
बाल विवाह मुक्त अभियान की शुरुआत से पहले भी सरकार ने इस दिशा में पहल की थी. इससे पहले वर्ष 2006 में बाल विवाह कानून में सुधार किया गया. इसमें लडक़ों के विवाह की उम्र 21 व लड़कियों के विवाह की उम्र 18 वर्ष कर दी गई थी.वहीं वर्ष 2021 में राजग सरकार ने 2006 के कानून में सुधार करके लड़कियों की शादी की उम्र 21 साल करने का प्रस्ताव किया था.यूनिसेफ की एक रिपोर्ट भारत में 40 प्रतिशत के करीब लड़कियों के 18 साल से कम उम्र में विवाह होने की बात कहती है.बाल विवाह उन्मूलन की दिशा में असम सरकार की सफलता का अकसर जिक्र होता है, जहां आंकड़ों में तेजी से गिरावट आई है. केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि वर्ष 2029 तक बाल विवाह की दर को पांच प्रतिशत से नीचे लाया जाए. निस्संदेह, बाल विवाह जहां बच्चियों के मौलिक अधिकारों का हनन है, वहीं उनकी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं को भी कमतर करता है.इससे जहां लड़कियों के अधिकारों का अतिक्रमण होता है, वहीं उनके शोषण का भी खतरा रहता है.पूरी पढ़ाई न होने तथा नौकरी न कर पाने की स्थिति में वे आर्थिक रूप से पतियों पर आश्रित हो जाती हैं. जिससे उनका स्वाभाविक विकास नहीं हो पाता.जिसके चलते अकसर भावनात्मक विभेद का सामना भी करना पड़ता है. बाल विवाह का होना यह भी बताता है कि हमारे समाज में अभी दहेज प्रथा का दबाव कम नहीं हुआ है. जिससे बचने के लिये अभिभावक तुरत-फुरत अल्पवयस्क लड़कियों की शादी कर देते हैं,लेकिन एक हकीकत यह भी कि सिर्फ कानून बनाने से ही इस कुरीति पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता, समाज में जागरूकता लाने के लिये भी राष्ट्रव्यापी अभियान चलाना होगा.