इस समय विश्व मंच पर भारत की जो स्थिति है,वैसी पहले कभी नहीं रही.अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बन चुके हैं.रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन भारत के परम हितेषी हैं. कनाडा को छोडक़र यूरोप के सभी देशों से हमारे बहुत अच्छे संबंध हैं. अधिकांश खाड़ी देशों का भी हमें अपूर्व समर्थन प्राप्त है. ऐसे में सवाल यही है कि क्या भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट हासिल कर सकेगा ? भारत की राह में सबसे बड़ा रोडा चीन को माना जाता है. चीन का भी रवैया हमारे प्रति बदल रहा है. जाहिर है भारत के लिए इससे अनुकूल स्थिति नहीं हो सकती.अब चाहे क्वाड में भारत की सार्थक उपस्थिति हो या जनवरी में शपथ ले रहे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ नरेंद्र मोदी की केमिस्ट्री हो, सभी की देश-विदेश के मीडिया में चर्चा हो रही है.पिछले दिनों अमेरिका में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सुनने उमड़ा विशाल भारतवंशी समुदाय उनकी लोकप्रियता के ग्राफ को दर्शाता है.यही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रधानमंत्री के साढ़े चार मिनट के भाषण की भी चर्चा दुनिया में गूंजी है. दरअसल,प्रधानमंत्री ने प्रतीकों व प्रतिमानों के जरिये संयुक्त राष्ट्र में सुधार की जरूरत, ग्लोबल साउथ की आवाज और चीन की समुद्री क्षेत्रों में दादागिरी व पाक के आंतकवाद पोषण को बिना नाम लिये उजागर किया. एक मायने में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र को उसके मुख्यालय में आईना दिखाया कि विश्व में उभरती शक्तियों को संयुक्त राष्ट्र में न्यायोचित स्थान नहीं मिला. उन्होंने भारत की विशाल जनसंख्या, तेजी से बढ़ती आर्थिक हैसियत तथा दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की संयुक्त राष्ट्र में बड़ी भूमिका की जरूरत को बताया.
संयुक्त राष्ट्र की ‘समिट ऑफ द फ्यूचर’ में दिया गया प्रधानमंत्री का वो भाषण पहली नजर में सपाट नजर आता है, लेकिन इसके जरिये दुनिया के बड़े देशों के लिये साफ संदेश निहित था. उन्होंने भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के लिये सुरक्षा परिषद के लिये दरवाजे बंद करने पर सवाल उठाए. उन्होंने भारत द्वारा सफलता से आयोजित जी-20 सम्मेलन में अफ्रीकन यूनियन को स्थायी सदस्यता दिये जाने का जिक्र करते हुए कहा कि संयुक्त राष्ट्र को भी नये विश्व की आकांक्षाओं का सम्मान करना चाहिए. उनका आग्रह था कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की आवाज को सुना जाना चाहिए.उन्होंने बिल्कुल सही कहा कि हम दुनिया की आबादी के छठवें हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं.
दरअसल, ग्लोबल साउथ के मायने हैं कि विकास की दौड़ में पीछे रह गए वे अफ्रीका व लैटिन अमेरिकी देश, जिन्हें आर्थिक संबल की जरूरत है. जिनके लिये वर्ष 2023 में भारत ‘वॉयस ऑफ द ग्लोबल साउथ समिट’ का आयोजन कर चुका है.भारत ने अपने अनुभवों का लाभ इन देशों के साथ बांटने में उत्सकुता दिखायी.दरअसल, विश्व शांति व विकास के लिये जरूरी है कि वैश्विक संस्थाओं के स्वरूप में सुधार किया जाए. दूसरे शब्दों में कहें कि तो प्रधानमंत्री ने दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल भारत को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिए जाने की वकालत की है. वहीं दूसरी ओर उन्होंने पाकिस्तान व चीन का नाम लिए बगैर साफ किया कि दुनिया की शांति व सुरक्षा के लिये आतंकवाद बड़ा खतरा है. उन्होंने वैश्विक स्तर पर इसके खिलाफ कार्रवाई की वकालत की.जाहिर है अमेरिका के चुनाव के बाद अब संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट के लिए हमारे दावे की चर्चा और भी जरूरी हो गई है.